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रविवार, 20 अक्तूबर 2013

बाबूजी की 22 वीं पुण्यतिथि !




            २२ वर्ष  बाबूजी को गए हुए ,  लेकिन वे अपने स्वभाव और सिद्धांतों से हमारे साथ आज भी हैं।  आत्मनिर्भर , कर्मठ और स्पष्टवादी  होने के कारण वे अपनी अलग छवि रखते थे।  कानपूर के उर्सला हॉर्समैन हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट के पद पर जीवन भर काम किया।  कई बार स्टोर इंचार्ज बने लेकिन मजाल है कि कोई एक गोली भी बगैर डॉक्टर के पर्चे के बगैर ले जाय।  परिणाम वही अपने जीवन में सिर्फ यापन ही कर सके।  मित्रों के शौक़ीन बाबूजी ने कभी बेईमानी की बात नहीं जानी।  अपने जीवन में ये भी नहीं सोचा कि  यहाँ से रिटायर्ड होकर कहाँ रहेंगे ? कोई घर नहीं , कोई जमीन नहीं और रिटायर होने के बाद नियमानुसार जितने दिन का समय मिला रहे और फिर तुरंत बेटों को आदेश के किराये का मकान  खोजो। जब की उनके साथियों में उनसे पहले अपने एक नहीं दो दो मकान तैयार करवा लिए थे।  वैसे इस समय तक मैं उनके परिवार में शामिल भी नहीं हुई थी। 
                        किराये के मकान में कभी रहे नहीं थे सो मकान मालिक की दखल से परेशान और उनके भाग्य ने साथ दिया और उनको कानपूर विश्वविद्यालय में डिस्पेंसरी संभालने का काम मिल गया और वे फिर सरकारी आवास में आ गए।  मैं उनके परिवार में यही शामिल हुई थी।  उनके बेटी नहीं थी सो उनकी बहुएँ  ही उनकी बेटियां बनी लेकिन सख्त अनुशासन ने हमें अनुशासित कर दिया था।  वैसे अपने मायके में कौन इतना अनुशासित रहता है ? समय से चाय , दूध और खाना इसमें कोई ढील पसंद नहीं थी।

                          वे अपनी 80 वर्ष की आयु तक अपने सारे  काम स्वयं करते थे।  अपने कपडे धोने से लेकर बागवानी तक।  बस जीवन के ४ महीने उन्होंने आश्रित होकर गुजारे  क्योंकि उनको कैंसर हुआ था और आखिरी चार महीने वे खुद कुछ कर पाने में असमर्थ रहे।  मुझे याद है कि उनसे कुछ महीने पहले १० अगस्त को मेरे पापा का अकस्मात् निधन हो गया था और मुझे खबर तक नहीं मिली क्योंकि टेलीग्राम आया ही नहीं था।  जब मैं लौट कर आई तो उन्होंने गले से लगा लिया मैं बहुत रोई तो उन्होंने सिर  पर हाथ  फिरते हुए कहा - "जाने के दिन तो हमारे थे वो कैसे चले गए ? मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि मैं तो हूँ , मेरा क्या ठिकाना ? "
                            शायद मैं दुनियां में अकेली होऊँगी जिसके सिर से दोनों पिताओं का साया एक साथ उठ गया।  अब बस यादें हैं - आज दिन तो रुला ही जाती है।  

सोमवार, 30 सितंबर 2013

दोहरी मानसिकता : आखिर कब तक ?

मेरी एक सहेली वर्षों तक मेरे साथ काम करती आ रही थी।  हम एक दूसरे के साथ करीब २४ साल काम किया है।  उनकी मानसिकता से  मैं परिचित तो अच्छी तरह हूँ।  उन्होंने अपनी बेटी की शादी अंतर्जातीय की और बेटे की खुद खोज कर सजातीय।  फिर शुरू हुआ उनके परिवार में शादी का सिलसिला।   साथ रहे तो एक दूसरे के परिवार ससुराल और मायके पक्ष के   विषय में अच्छे से परिचित हैं।  हमने  हर सुख दुःख भी बांटा है - चाहे मेरे पापा का निधन हो या उनकी माँ के निधन की घडी। 
                          अब दोनों ही कम मिल पाते हैं लेकिन संपर्क में तो रहते ही हैं।  उनके परिवार में किसी लडके की शादी होनी है तो उन्होंने मुझसे अप्रत्यक्ष रूप से कहा की - 'रेखा कोई अच्छी सी कायस्थ लड़की बताओ , देवर के बेटे के लिए खोज रहे हैं। '
                 मैंने सहज रूप से लिया लेकिन बाद में कि  वह लोग लड़कियों की शादी तो कहीं भी कर सकते हैं लेकिन अपने घर में सजातीय लड़की ही चाहते हैं क्योंकि वह अगर दूसरे जाति की होती तो उसके तौर तरीके , संस्कार सब  अलग होंगे। अपने परिवार में कैसे ले सकते हैं ? आखिर खून तो हर जाति का अलग अलग होता है। 
                  मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या हमारी मानसिकता शिक्षा, पद या फिर प्रगतिवादी होने के बाद भी बदलती नहीं है या फिर हम अवसरवादी हो जाते हैं कि अगर हमारी बेटी सुन्दर नहीं है और अपनी जाति में वर नहीं मिला तो बेटी की पसंद को प्राथमिकता दे दी जाय।  हाँ अगर बेटे वैसे हुए तो उनकी तो शादी हो ही जायेगी।  क्या संस्कार भी जाति के आधार पर होते हैं।  नैतिकता , सामाजिकता और संस्कार की भी परिभाषा अलग हो जाती है।  क्या बड़ों को सम्मान देने का तरीका , अपने दायित्वों को संभालने का ,शिक्षा  ग्रहण करने का तरीका जाति के अनुसार बदल जाता है ? क्या शरीर का खून भी अलग अलग रंग का होता है ? क्या ब्राह्मण , कायस्थ , ठाकुर कही जाने वाली जातियों में अपराधी  जन्म नहीं लेते।  क्या इनके घर में षडयंत्र नहीं रचे जाते।  इन परिवारों में महिला उत्पीडन , घरेलु हिंसा नहीं होती , दहेज़ नहीं माँगा जाता है।  आज सभी उच्च शिक्षित हो रहे हैं , परिवार का स्तर भी बहुत अच्छा हो चुका  है , उनके संस्कार भी हमसे कम नहीं है। 
                     अगर हम दूसरे पक्ष को देखे तो लोग कहते हैं ( अभी भी समाज में उच्च शिक्षित 75 प्रतिशत लोग इसको मानते हैं ) अगर निम्न जाति में शादी कर दी जाएगी तो बेटी उसी जाती  की हो जायेगी। अगर वह किसी अनुसूचित जाति  में शादी कर लेती  है तो फिर हम अपने घर कैसे बुला सकते हैं ? क्यों क्या सिर्फ शादी कर देने भर से उस बेटी के शरीर का खून बदल जाएगा या फिर  उसकी डी एन ए बदल जाएगा और वह आपके परिवार की बेटी न होकर उस परिवार की हो जाएगी ? कई बार ऐसी ऐसी दलीलें सुनने को मिल जाती हैं कि   आश्चर्य भी होता है और गहरा सदमा भी लगता है कि हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे ? ये निम्न जाति की परिभाषा कहाँ से गठित हुई ? उस इतिहास में जाकर उसके आधार को देखने की किसी को जरूरत नहीं है. बस लीक आज भी पीटने को तैयार है। 
                         ऐसी सोच अगर हम रख कर प्रोफेसर , डॉक्टर , अधिकारी हुए भी तो हमारी शिक्षा का , हमारे समाज के लिए दिग्दर्शन करने का कोई आधार रहेगा ? हम रूढ़िवादिता न छोड़ सके।  हम यथार्थ को समझने के लिए तैयार न हुए तो फिर हममें और हमारे पीछे की गुजरी पीढ़ियों में क्या अंतर हुआ ? हमने घर में चूल्हे को छोड़ कर गैस अपना ली , हाथ के पंखे झलने के जगह पर अब बिजली के उपकरण अपना लिए।  बेटियों को अपने पुराने परिधान के जगह पर नयें पाश्चात्य परिधान स्वीकार कर लिए।  उनको घर से बाहर भेज कर पढ़ाने के लिए भेजने पर भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि अब हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन हमारी  वही प्रगति इस विषय पर कहाँ चली जाती है ? अगर आज भी हम दोहरे मानको को लेकर चलते रहेंगे तो हम इस समाज में कौन सा सन्देश दे सकेंगे ?

सोमवार, 22 जुलाई 2013

गुरु पूर्णिमा : गुरु को नमन !

                          गुरु हमें वह सब देता है जिसकी हमें जरूरत होती है . मानव तो जीवन में दिशाहीन सा जीता रहता है कुछ  भौतिकता को ही जीवन का सत्य मान कर  आगे बढ़ जाते हैं .  वह गुरु जो मानव को  देता एक ऐसी दृष्टि   देता  है , जिससे वह ग्रहण करता है आध्यात्मिक ज्ञान , दिव्य ज्ञान और वह सब कुछ जो गुरु उसको  समझाता है .   ऐसे गुरु को इंसान  खुद नहीं खोज पाता है बल्कि गुरु अपने शिष्यों को खुद पहचानता है और   जब उन्हें योग्य पाता है तो वह सब कुछ सौंप देता है जिसको उसने  अर्जित किया होता है . वह जीवन में कई कसौटियों पर कसकर ही चुनता है और  तब अपने शिष्य को शिष्यत्व  प्रदान करता है. 

                                मैं अपने गुरु को नमन करते हुए विनम्र नमन के साथ कहती हूँ  कि मैं एक ऐसी शिष्या - मेरा जैसा सौभाग्य शायद ही किसी को मिला हो कि जो अपने गुरु की गोद में बचपन से खेलते  हुए बड़ी हुई और अंततः उनके लिए शिष्य बन गयी . वे  पितातुल्य मेरे फूफाजी "श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव " थे .  जब भी वे कानपूर से उरई जाते कुछ  सिखा  कर आते . प्रिय तो उनको पूरा परिवार था लेकिन मैं और मेरे भाई साहब विशेष प्रिय थे . 
                                मेरी शादी के निर्णय को अंतिम स्वीकृति देने वाले वही थे. उसके बाद भी पग पग पर सावधान करते रहे और इस तरह से बच  कर निकलना है  ये बताते रहे . जीवन में संघर्ष की परिभाषा और उससे जूझकर निकलने की शक्ति भी उन्ही से मिली . उन्होंने मुझे अपने पैमाने के अनुसार  कसौटियों पर कसते हुए जब इस योग्य पाया कि मैं कहीं भी उनकी दी गयी शिक्षाओं और मार्गों की अवमानना नहीं करूंगी तब मुझसे कहा था -- 'तुम अपने जीवन में कभी किसी का अहित मत सोचना , भले ही वह तुम्हारा हित न सोचे .'  मैंने इसे स्वीकार कर उनको वचन दिया था और उसको आज भी निभा रही हूँ . 
                           तब मैं ये नहीं जानती थी की दीक्षा क्या होती है औरकैसे ली जाती है ?  क्योंकि हमें इस विषय में कभी बताया ही नहीं गया था . मेरी हर मुसीबत से लड़ने के अस्त्र उन्होंने मन्त्रों के रूप में सहज ही  दे रखे थे . फूफाजी थे कोई बात नहीं थी . वे एक सीधे सादे गृहस्थ थे और उनके ज्ञान को मैं स्वयं अपने जीवन में नहीं समझ पायी थी . फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - "रेखा , अब तुम इस जीवन में किसी भी व्यक्ति से दीक्षा मत लेना ." मैं इस बारे में कुछ जानती नहीं थी सो कह दिया कि नहीं लूंगी
                           फिर १९९६ में मेरे परिवार में " आसाराम बापू " की दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए . तब मुझे वह शब्द याद आये और मैंने मना कर दिया कि मेरे गुरु तो वही थे जिन्होंने मुझे सब कुछ ऐसे सिख दिया जैसे माँ अपने बच्चे को सिखाती है . वे हमें १९९५ में छोड़ कर चले गए थे . तब मुझे पता चला कि दीक्षा क्यों लेते हैं ? मेरे गुरु तो मुझे बचपन से दीक्षा देते रहे और मैं लेती रही . मेरे जैसे गुरु शायद ही किसी को  मिले होंगे .
                          उनके अपने गुरु कौन थे ? ये बात उन्होंने मुझे बताई थी की उनका गुरु भी कोई मानव नहीं था बल्कि  उन्होंने सूर्य की उपासना करके सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित किया और मोक्षगामी आत्मा बने . आज भी अप्रत्यक्ष रूप से वे मेरा दिग्दर्शन करते हैं .

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

कब बदलेंगे हम ?

                                  अपने जीवन में बहुत सारे लोगों से  हुआ . बहुत से लोगों की गुत्थियों को सुलझाया , दिशा दी या फिर कुछ इस तरह से जीवन में शामिल हो गए कि जैसे वे मेरे बहुत अपने हों लेकिन इस बार कुछ ऐसा हुआ कि लग रहा है शायद एक आत्महत्या को बचा पाना मुश्किल है . कहेंगे हम इसे आत्महत्या लेकिन होगी ये ऑनर किलिंग ?

                                निधि ( काल्पनिक नाम ) मेरी बेटी की सहेली है बचपन से K G  से साथ पढ़ी और आगे जाकर उनकी दिशा तो बदल गयी लेकिन साथ नहीं बदला। जब भी बेटी कानपूर आती है वो जरूर मिलने आती है और सारा दिन एक साथ बीतता है  या फिर बेटी वहां जाती है . कुछ इत्तेफाक ऐसा है कि मेरी बड़ी बेटी की जितनी भी सहेलियां है हम सबके परिवार से जुड़े हैं लेकिन छोटी वाली की सहेलियों से तो जुड़े हैं उनके परिवार से कोई वास्ता नहीं है .  न मैं कभी गयी और न वे लोग कभी आये .
                             वैसे तो बिटिया रानी भी अच्छी काउंसलिंग कर लेती हैं लेकिन इस बार हार  कर मुझसे सलाह ली और मामला कुछ ऐसा निकला कि उनकी मित्र जो नौकरी भी करती है लेकिन वह जिससे शादी करना चाहती है वह उनके क्षेत्र का ही इंसान है लेकिन वह उनके बराबर की सजातीय  नहीं है . उसने इस बारे में अपने घर में बात की और परिणाम ये है कि  हमें कहते हुए शर्म आती है कि पढ़े लिखे उच्च शिक्षित लोग भी ऐसा कर सकते हैं . राजी होने तो दूर की बात उन्होंने बेटी को जिस तरीके से टार्चर कर सकते हैं किया , वह हमेशा चहकने वाली लड़की - खामोश हो चुकी है .  आज के ज़माने में जब की संकीर्णता की बेड़ियाँ टूट रही है हम अब भी वहीँ जी रहे हैं . मुझसे बात नहीं हुई लेकिन उनकी दलील सुनी तो लगा कि क्या कुछ लोगों  की विचारधारा कभी बदल नहीं सकतीहै .     इज्जत के नाम पर खुद अपनी दुनियां उजड़ जाए तो कोई बात नहीं है लेकिन इज्जत रहनी चाहिए . ये क्यों भूल जाते हैं कि  अगर अति संवेदनशील बच्चा अवसाद की स्थिति में कोई आत्मघाती कदम उठा  लेता है तो आप लोगों को क्या उत्तर देंगे ? उनके कितने कटाक्ष सुनेगें ? तब आपकी इज्जत बरक़रार रहेगी शायद नहीं,  आप अपने बच्चे को भी खो देंगे और इज्जत को भी . शादी के बाद कोई पूछने नहीं आता है कि आपकी बेटी कैसी है ? उसके और आपके सुख दुःख में साथ  देने वाले कोई नहीं होंगे आपके अपने बच्चे ही होंगे .
               अगर कल को वह लड़की इतने अवसाद के चलते आत्महत्या कर लेती है तो उनकी इज्जत के लिए कितने  सवाल पैदा होंगे ? ये बात उनकी समझ क्यों नहीं आती है ?
                     मान लीजिये कि उस लड़की ने आपकी इज्जत की दुहाई के लिए कहींऔर शादी कर भी ली और कल 
वह सामंजस्य न बिठा पाई तो आप उसके जीवन को कितने वर्षों तक साथ देंगे ?
            आपने अपनी जिन्दगी अपने अनुकूल जी और अब चाहते हैं कि बच्चे भी अपनी जिन्दगी आपके अनुरूप ही जियें . समझदारी इसी में है कि उनकी जिन्दगी उन्हें जीने दें . वे अब बच्चे नहीं रहे कि  हम उनकी अंगुली पकड़ कर या गाय बकरी की तरह से जहाँ चाहे जिस खूंटे से चाहे बांध दें और वे बंधे रहें .अगर जिद और हालत के चलते बड़ों ने निर्णय न बदला तो कल का इतिहास कुछ भी हो सकता है .  आप लोग भी कुछ राय दें कि हम क्या कर सकते हैं ?

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शनिवार, 11 मई 2013

एक पाती माँ के नाम !

                      
चित्र गूगल के साभार 

                 
       माँ मेरी प्यारी माँ शायद तुम्हें मालूम भी नहीं होगा  कि आज "मातृ दिवस " है और मैं तुमसे बहुत दूर सात समंदर पार पड़ी हूँ  और आँसू बहा रही हूँ क्योंकि मैं तुमसे बात भी तो नहीं कर सकती हूँ .  उम्र के चलते  तुमको कम सुनाई देता है फिर भी तुमसे जब भी बात करती हूँ जो तुमको सुनाई दे गया उसका सही उत्तर दे दिया और जब तुम अपने दर्द को मुझसे बांटना चाहती हो तो कान लगा कर खड़ी  हुई तुम्हारी बहू सुन लेती है और फिर तुम्हारा मोबाइल जो मैंने तुम्हें बात करने के लिए देकर आई थी, उसको तुमसे छीन लिया और अपने पास रख लिया . ये यह सोच कर किया कि  कहीं उसकी अनुपस्थिति में तुम हम लोगों से अपने दिल की बात न कर लो . वैसे तो उसका पहरा रहता ही है . जो भी सुना उसको लेकर फिर खरी खोटी तो तुम्हें ही सुनना पड़ता है . ऐसा नहीं है कि  वे सब बातें मुझे पता नहीं लगती है . सब कुछ जान लेती हूँ , तुम्हारे दिल का दर्द और तुम्हारी तड़प मुझे भी महसूस होती है. 
                     मेरी मजबूरी ये है माँ कि मैं तुम्हें अपने पास नहीं ले जा सकती क्योंकि तुम इतनी दूर आना कभी नहीं चाहोगी क्योंकि अपनी वहां रहने वाली बेटियों के पास इसलिए नहीं जाती हो कि  कहीं उनके पास रहते हुए तुम्हें कुछ हो गया तो क्या होगा ? तुम अपने घर में ही आखिरी सांस लेना चाहती हो और बेटे के बिना तो माँ का काम हो ही नहीं सकता है . जब कि सब चाहते हैं तुम कहीं भी चली जाओ . हाँ घर से निकाल नहीं सकते क्योंकि अभी समाज का डर उनके मन में कहीं शेष है . घर के अन्दर समाज झांकने नहीं आता है लेकिन घर से कदम निकालने  पर सवाल खड़े हो जायेंगे . 
                   माँ जिस बेटे को बड़ा आदमी बनाने का तुम्हारा सपना तो पूरा हुआ लेकिन तेरे त्याग और तपस्या के साक्षी हम सब है लेकिन वह भूल गया . तुम्हारे संघर्ष को तुम्हारी बहू ने अपना हथियार बना लिया , मानो तेरे बेटे की तरक्की वह अपने साथ ही लायी थी . माँ मुझे सब कुछ पता चल जाता है , दूर हूँ तो क्या - मेरी आत्मा का तेरी आत्मा से सीधा रिश्ता है अगर तू तड़पती है तो मैं रात  भर सो नहीं पाती हूँ . 
                   माँ इतने बड़े सुसज्जित घर में तुम्हारे हिस्से में एक पीछे का कमरा आया है जिसमें सिर्फ एक खिड़की है . माँ इस भीषण गर्मी में तुम बगैर कूलर के कैसे रहती होगी ? बाकी  उनके कमरे में तो ए सी लगे हैं . ठन्डे पानी के लिए माँ तुम्हें क्या क्या करना पड़ता है ? एक बार मांग लिया तो फिर दुबारा जल्दी नहीं दे सकता है , जब कि  इस गरमी में तो पानी थोड़ी देर में गर्म हो जाता है और उस गर्म पानी के फेकने पर तुम्हें बातें सुनाई  जाती हैं,  जो तुम्हारी खुद्दारी को मंजूर नहीं।  इसलिए एक बार लिया हुआ पानी पीकर फिर उस बर्तन पर गीला कपड़ा लपेट कर रखती हो जिससे कि फिर एक बार और पी सको  . माँ तुम वही हो जो घर में आने वालों को गर्मी में ठन्डे पानी के साथ गुड या कुछ मीठा लेकर ही जाती थी . भले तब वह पानी घड़े का होता था . 
                  माँ तुम वही अन्नपूर्ण हो जिसे बचपन से हमने घर में इतने बड़े परिवार के लोगों को और साथ ही गाँव और रिश्तेदारों को खाना खिलाते हुए देखा है और चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आती थी . कहाँ से सब मैनेज करती थी मेरी नजर से नहीं छुपा रहता था . कभी ज्यादा पैसे की जरूरत पड़ी तो बूढी काकी से लेकर फिर ब्याज सहित देते मैंने देखा था लेकिन कभी कोई कमी नहीं होने दी . चार चार बच्चों की फीस पढाई और फिर संयुक्त परिवार के खर्चे सब कितनी ख़ुशी से उठाया करती थीं . 
                  आज वे सभी कन्नी काट रहे हैं और तुम्हें लग रहा है कि  सब लोग तुम्हारा किया भूल गए नहीं माँ ऐसा नहीं है . सबको याद है वे अहसान फरामोश नहीं है लेकिन वे तुम्हारे बारे में कुछ गलत नहीं सुन पाते हैं क्योंकि कहने वाले से अधिक समय तक उन लोगों ने तुम्हारे साथ जीवन बिताया है . वे भी अब टूट चुके हैं . तुम्हारे पास आने से पहले उनका साक्षात्कार तुम्हारी बहू से होता है और फिर घंटों तुम्हारी कमियों और अवगुणों का बखान होता है उसके बाद तुम्हारे पास आ पाते हैं . इसी लिए माँ वे नहीं आते हैं भूला कोई भी नहीं है. 
                     मैंने जानती हूँ कि ये पाती तुम्हें मिलेगी नहीं क्योंकि अगर मैंने इसको पोस्ट कर दिया तो ये तुमसे पहले उनको मिलेगी और कोई और पढ़े और तुम्हारी मुसीबतें और बढा दें ये तो मैं आज के दिन कभी नहीं चाहूंगी . माँ मैं वह सब लिख रही हूँ जो मुझे पता है , अपने शब्दों में तुम्हारे दर्द को बयान कर रही हूँ और क्या पता है तुम्हें कि इसका एक एक शब्द लिखते हुए मेरे आंसुओं ने थमने का नाम नहीं लिया है . मैं कितनी विवश हूँ माँ ! तुम्हें कुछ भी दे नहीं सकती हूँ और अपने पास भी नहीं बुला सकती हूँ . मालूम मैं क्या चाहती हूँ ? सच कहूं - माँ अब ईश्वर  इस जीवन से मुक्त कर दूसरा जीवन दे . मुझे पता है कि ये सोचना एक बेटी के लिए कितना कठिन है लेकिन सच माँ तुम्हारे कष्ट को देखने से बेहतर तुम्हें उस कष्ट से मुक्त होते देखना है .  माँ मैंने इस मातृ दिवस पर सब कुछ कह दिया - तुम्हारे दिल तक मेरा सन्देश जरूर पहुँच गया होगा . माँ तेरा अंश हूँ तेरी आत्मा का अंश - इस अंश का तुम्हें शत शत नमन !

मंगलवार, 7 मई 2013

बेटियों से आह्वान !

                    मेरे इससे पूर्व लिखे गए लेख -' बेटे की माँ ' पर नीलिमा शर्मा जी ने ये कविता भेजी है , ये उनका बेटियों से आह्वान वाकई विचारणीय है .

 लडकियों 
 दुनिया बदल रही हैं 
किस्मत चमक रही हैं 
 अब घर बेठने से कम नही चलेगा 
 उठो निकलो काम  पर अपने काम से 


रास्ता अँधेरा होगा 
 दूर पर कही सवेरा होगा 
 रोशन करनी हैं तुम्हे दुनिया 
 उठो चलो कदम बढाओ शान से 


 एक अकेली मत चलो 
 आपस में तुम मत लड़ो 
 छा सकती हो तुम दुनिया पर 
 जब चला दो झुण्ड में  तीर कमान से 


 कारवां होने लगा छोटा 
नर नारी की जातका 
 कन्या को भी  जन्मदो 
 और समूह बनाओ उनका तुम सम्मान से 



 एकता मैं बल हैं 
 बल ही बलवान हैं 
नारी ही नारी की दुश्मन 
झूठ कर दो इस बयां को अपने ज्ञान से .................. नीलिमा

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

बेटे की माँ !

                      आज केवल राम जी का नारी विषयक लेख की श्रृंखला पढ़ रही थी और उसमें ही पढ़ा कि आज भी परिवार चाहे जितनी आधुनिकता का दम भरते हों और चाहे जितनी सभा और मंच पर बेटी और बेटे की समानता की बातें करते हों लेकिन अन्दर से हम आज भी वैसे ही हैं और खास तौर पर महिलायें भी . जिन्हें शायद अपने महिला होने पर गर्व होना चाहिए और बेटियों से मिल रहे प्रेम और समर्पण को मानना चाहिए .

                       नाम तो मैं उजागर नहीं करूंगी लेकिन बहुत करीब के लोगों के परिवार में दो बेटियां माँ  बनने वाली थी और दोनों के प्रति घर में सभी सदस्यों को उत्सुकता थी .उन दोनों के अलावा  परिवार की एक बेटी बाहर रहती हैं।  वह भारत आ रही थी तो उसने सोचा की दोनों के होने वाले बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेज लेती चलूँ और वह दोनों के होने वाले बच्चों के लिए ड्रेसेज का सेट बना कर पैक करके रख गयी कि जब जिसके घर आप लोगों का जाना हो तो आप लोग मेरा पैक भी लेती जाएँ . 
                       इत्तेफाक से दोंनों ही बेटियों के लडके हुए और पैक यथा समय जाते वक्त लोग लेते चले गए . 
             कुछ दिनों बाद उनमें से एक कानपुर आई और उसके लाये हुए कपड़ों से एक ड्रेस जो लड़कियों की तो नहीं थी लेकिन दोनों के पहनने काबिल थी . वापस करती हुई बोली - ये ड्रेस न लड़कियों की है और मेरा बेटा लड़कियों की ड्रेस क्यों पहनेगा  ? इसको रख लीजिये , आगे किसी और के काम आ जायेगा . उस लड़की में मैंने बेटा को जन्म देने का जो दर्प देखा तो लगा कि अपनी माँ के कोई बेटा न होने का दंश या फिर उस मानसिकता को बदल न पाने का प्रतीक . इसको क्या कहा जाएगा ? मुझे तो लगा कि शिक्षा , प्रगतिशीलता या फिर आधुनिकता का जामा पहन भर लेने से हमारी मानसिकता में बसे पुरातनता के कीड़े कभी मर नहीं सकते हैं . ये फर्क ख़त्म करने कि  हम हामी भर रहे हैं और खुद को इससे ऊपर ले जाने का दम भर रहे हैं लेकिन वह दम सिर्फ जबान से बोलने भर के लिए है  . हम आज भी वही हैं जहाँ सदियों पहले थे और आज भी दिल से यही चाहते हैं की घर में पहला बेटा  जो जाये फिर चाहे दूसरी संतान हो न हो क्योंकि आज कल एक की परवरिश ही कठिन हो रही हैं .

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

नारी और नारी !

                                वह  मेरी सिर्फ परिचित ही नहीं  है बल्कि  पारिवारिक मित्रता उसके ससुर और मेरे ससुर  के समय से चली आ  रही है. वह मुझसे बहुत छोटी है लेकिन रिश्ते से भाभी कहती है . उसके बच्चे अभी पढ़ ही रहे हैं . अचानक पता चला कि  उसके पति को एक हॉस्पिटल की  लापरवाही के कारण एक संक्रमण हो  गया और फिर उसकी जिन्दगी अँगुलियों पर गिनी जाने वाले दिनों की रह गयी .  यहाँ से मुंबई तक जो भी जहाँ भी इलाज संभव था उसने करवाया लेकिन जब जिन्दगी की घड़ियाँ ख़त्म हो जाती है तो फिर ईश्वर  नहीं देखता कि पीछे क्या होगा? 
                           वही हुआ जो होना था पिछले हफ्ते वह नहीं रहा . उनके घर के और सदस्य भी मेरे परिचितों में है . इसके बाद  हुआ प्रपंचों का सिलसिला . झूटी संवेदना दिखाती हुई उनकी रिश्तेदार रोज वहां जाती रही और फिर घर पर  उसकी आलोचना . उसने पति के न रहने पर श्रृंगार भी नहीं उतारा (जो एक हिन्दू धर्म के  एक दर्दनाक रस्म पूरी करवाई जाती है ) . उसकी बहन कह रही थी कि  ये न मैं बर्दास्त कर  हूँ और न वह खुद . बस जो पहना  था उतार कर रख दिया और दूसरा पहना दिया । ये तो मैं इतने वर्षों में औरतों  को करते हुए देख रही हूँ , इसमें उम्र की क्या  बात है? अगर पति नहीं रहा तो विधवा तो कहलाएगी ही। इंसान की आत्मा  घर वालों के पास भटकती रहती है. 
                       मुझे सुनकर बहुत गुस्सा आया लेकिन वो मुझसे बहुत बड़ी  हैं और मैं उन्हें इस विषय में फटकार तो नहीं  सकती थी हाँ मैंने उन्हें समझाते हुए दबी जुबान  से कहा कि  उसकी जिन्दगी में इतनी बड़ी चुनौती आ खड़ी  हुई है और उसको हम सहारा न दे सकें तो मानसिक तौर पर प्रताड़ना तो न दें . अब विधवा के लिबास में उसको आप देख पाएंगी जो आपकी बहू जैसी है . ये सब पुरातन पंथी छोडें  और उसको मानसिक संबल दीजिये। वो मुझसे ये सब इसलिए कह रही थीं कि वह मेरे बहुत करीब थी . बहू उनके परिवार की थी, लेकिन परिवार की हो या बच्चों की सारी  बातें वह मुझसे डिस्कस कर लेती थी और सलाह भी मान जाती है .
                       ये  मुझे झकझोर गयी कि अपने बहुत अपने कहलाने वाले ही अपनी बहू और बेटी से आज भी ऐसे  कर  सकते हैं . ये तो घरेलू महिला की बात है , अच्छी पढ़ी  और कामकाजी महिलायें  अगर  विधवा को अच्छी साड़ी पहने देख लें तो कुछ न कुछ कमेन्ट कर ही देतीं  हैं . ये हमारी मानसिकता अपने ही  के वर्ग के लिये.  

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

कुम्भ : एक पक्ष ये भी !

               
चित्र गूगल के साभार 

           महाकुम्भ का पर्वकाल बीत गया और वहां पर महीने भर से अधिक ढेरा डाले हुए कल्पवासी , सन्यासी, महामंडलेश्वर  और विभिन्न अखाड़ों के लोग अब तक जा  चुके है. कुम्भ हमारी धार्मिक आस्था के अनुसार मनुष्य जीवन के तमाम पुन्योंको देने वाला होता है और यही कारण  है कि हर पर्वकाल पर करोडों लोगों ने स्नान किया , पुण्य कमाया . सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी भी इस बात में आस्था रखते वाले थे और देश विदेश की सारी सरहदें इसके आगे बौनी हो गयीं थीं . इनके  मन में आस्था थी और हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप ये वर्षों के तप के समान पुण्यदायी होता है. 
                 अपने पापों की गठरी लाकर उस पुण्यदायी कुम्भ के पर्व पर स्नान करके नदी के पावन जल में समर्पित करते चले जाते हैं (ऐसी हमारी मान्यता है ) किन्तु इसके साथ ही कुछ ऐसे पुण्य कमाने वाले आये थे जो अपने सिर के बोझ को उतरने के लिए आये थे और वे अपने अपने बुजुर्गों को इसा कुम्भ के मेले में सिर्फ छोड़ कर जाने के पवन उद्देश्य को लेकर ही आये थे. उनसे मुक्ति मिल गयी ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग अपने जाने अनजाने पापों से मुक्त होने के लिए यहाँ कुम्भ स्नान के लिए आये थे. पूरे देश से करोड़ों श्रद्धालु यहाँ आये थे और बुजुर्ग तो खास तौर पर इस काल को अपने जीवन का सौभाग्य समझते हैं . बड़ी ख़ुशी से वे अपने घर चले होंगे और फिर ..........?  ये छोड़े गए बुजुर्ग देश के विभिन्न प्रान्तों से आते हैं और उनकी भाषा बोली सबके समझ नहीं आती और वे भी खुद भी स्थानीय भाषा या बोली नहीं समझ पाते है . वे बुजुर्ग बेचारे क्या ये जानते हैं कि  उनके बेटे , बहू या बेटी उनको यहाँ कुम्भ स्नान के लिए नहीं बल्कि उनको यहाँ छोड़ कर उनसे मुक्ति पाने के लिए आये थे. 
                  फिल्मों में पहले देखने को मिलता था कि  मेले में बच्चे बिछुड़ गए और फिर वे अनाथ या दूसरों के द्वारा पाले  गए लेकिन यह परिकल्पना फ़िल्म वाले भी नहीं सोच पाए थे कि  अपने माँ बाप को कुम्भ के मेले में छोड़ जाओ और फिर उनके भार से मुक्त . गाँव में जाकर बता दिया कि  वे मेले में खो गये लेकिन प्रश्न यह कि  वे खो कर गए कहाँ? 
                   ये छोड़े गए बुजुर्ग एक या दो नहीं बल्कि इनकी संख्या अर्ध शतक से भी अधिक है . जिन्हें खोये हुए व्यक्तियों के शिविर में रखा गया है कि  उनके घर वाले उन्हें खोजते हुए आ जाएँ और उनको उनके घर भेज  सके. वे अपनी सूनी आँखों से अपने घर वालों का इन्तजार कर रहे हैं और उनमें से कुछ को तो ये भान  भी नहीं है कि वे खोये नहीं है बल्कि उनके घर वाले उन्हें लाये ही इसलिए थे. कुछ को इस बात का भान अब हो गया है क्योंकि घर में उनके कारण होने वाली रोज रोज की कलह से वे आजिज जो थे. ऐसा कैसे जाना  क्योंकि पूछने पर वे अपनी गीली आँखें बार बार पौंछ  रहे है. और फिर वे  शून्य में निहारने लगते है। 
                   ये सभी निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के बुजुर्ग हैं  तब ये प्रश्न उठते हैं हमारे जेहन में ---
क्या उनके घर वाले गरीबी से त्रस्त होकर इन्हें यहाँ छोड़ गए ?
क्या गरीबी के आगे हमारी संवेदनाएं मर चुकी हैं?
कभी उनहोने ये सोचा कि  क्या उनके माता -पिता इतने समर्थ होंगे कि उनको आराम से पाला  होगा फिर वे क्यों उन्हें कहीं छोड़ कर नहीं चले गये. ?
                  ये वर्ग वृद्धाश्रम में रखने के लिए अपने को समर्थ नहीं पाते  होंगे और इस वर्ग के लिए समाज और उसके मूल्य मायने रखते हैं वे जवाबदेह होते हैं कि अपने बुजुर्गो को किस तरह से रखते हैं? ये बात और है समाज के बदलते मूल्यों के चलते अब कोई किसी के पारिवारिक मामलों में नहीं बोलता लेकिन कटाक्ष करने में आज भी लोग पीछे नहीं हटते हैं और इसी लिए खो गए एक ऐसा उत्तर है जिसे सुनकर लोग निरुत्तर हो जायेंगे लेकिन क्या वाकई हम सब खामोश होकर उनकी इस दलील को स्वीकार कर रहे है. ? वे प्रश्न उठा रहे हैं  कि  कैसे हम इतने गैर जिम्मेदार हो जाते हैं ? अगर वे बुजुर्ग को साथ लेकर जाते हैं तो क्यों नहीं वे उसके साथ अपने घर और परिवार के बारे में जानकारी उन्हें लिख कर दे देते हैं . ताकि अगर वे भटक भी जाएँ तो वहां की व्यवस्था उसके आधार पर उन्हें अपने परिजनों से मिलवा सकें . उनके पास अपने घर के जिम्मेदार व्यक्ति का फ़ोन नंबर  भी उनको दे सकते हैं ताकि उनसे सम्बन्ध साधा जा सके. लेकिन ये तो तब किया जाता है जब हम इस स्थिति को टालने के लिए सोच रहे हों . हम उन्हें सड़क पर फ़ेंक आयें या फिर मेले में छोड़ आये लेकिन क्या परिवार से शेष सभी सदस्य इतने निष्ठुर हो जाते हैं कि अपने घर के बुजुर्गों को इस  तरह से छोड़े जाने के निर्णय को स्वीकार कर चुप लगा जाते हैं  ? 

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

33 वर्ष का सफर !

          26  जनवरी 1980 यही वह दिन था जब की देश में गणतंत्र दिवस मन रहे थे सब और मेरे जीवन में एक संविधान की भूमिका ख़त्म होकर दूसरे संविधान की भूमिका रची गयी थी .          
                                                              


                 कब और कैसे 33 साल गुजर गए पता ही नहीं चला , दिन और रात गुजरते रहे , हम सुबह शाम दौड़ते रहे जिन्दगी के रास्तों पर और कंटकाकीर्ण रास्तों पर भी चलते रहे क्योंकि हमारी जिन्दगी कभी भी अपने लिए जीने वाली रही ही नहीं .शायद सुनने में कोई विश्वास न करे लेकिन ये सच है कि  हम इन 33 सालों  में से 31 साल तक ( इसलिए क्योंकि 2 साल पहले हमारी सासु माँ के निधन तक ) तो हम कहीं भी परिवार के साथ घूमने तक नहीं जा पाए . आश्चर्य लग रहा होगा लेकिन सच यही है। शादी के समय बाबू जी के पैर में डिसलोकेशन हो गया था , इसलिए कोई सवाल नहीं उठता था और अम्मा तो 8 साल पहले से दुर्घटना का शिकार होने के कारण सामान्य थी हीं  नहीं।
                  हम जीवन में कभी भी घूमने गए ही नहीं , हाँ हमारी सीमायें इतनी सीमित थी की अगर अपने परिवार में किसी समारोह में शामिल होना हुआ तो मैं दो दिन पहले और ये उसी दिन और दूसरे दिन वापस . उनकी अम्मा को लगता था कि  अगर उनका बेटा उनके पास रहेगा तो उन्हें कोई भी तक्लीफ होती है तो वे सुरक्षित रहेंगी . लोग परिवार के साथ हिल स्टेशन , तीर्थ स्थान और पर्यटन स्थल घूमने जाते हैं लेकिन ऐसा मेरी जिन्दगी में कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन मुझे कोई शिकायत भी नहीं रही  क्योंकि मेरी दुनियां घर , नौकरी और परिजनों तक ही सीमित रही।
                  मैं तो फिर भी अपने ऑफिसियल मीटिंग्स एक लिए बहुत जगह गयी लेकिन घर में इनको रहना होता था . वही होटल में रहते हुए कई बार ये बात मन को लग जाती थी कि  काश मैं बच्चों और इनके साथ यहाँ आई होती और इतना सारा घूमते तो कितना अच्छा होता लेकिन फिर थोड़ी देर बाद सब ख़त्म क्योंकि अम्मा को यह नहीं बताया जाता था कि  रेखा कोलकाता  त्रिवेंद्रम या फिर नॉएडा गयी हैं क्योंकि उन्हें बहुत डर  लगता था सो उनसे कह दिया जाता था कि  ऑफिस के काम से लखनऊ गयी है। अब दो साल से वे भी नहीं रहीं लेकिन अब जिन्दगी उसी ढर्रे से जीने की आदी  हो चुकी है और मैं भी। अब कोई शिकायत नहीं क्योंकि अब पीछे देखकर अफसोस करने का समय ही नहीं रहा और बस अतीत पर एक नजर डाल  कर सबके साथ बांटने का मन करता है तो उसे उठा कर बाँट लेती हूँ .
                       अब जब  की शादी करके दामाद जी भी आ चुके हैं तो विश करने पर कहेंगे 'पापाजी आज क्या प्रोग्राम है?' तो हंसी आती है . हाँ अब छोटी बेटी जरूर इस दिन आ जाती है या फिर हम लोगों को दिल्ली बुलाती है  और फिर जो उन्हें करना होता है बच्चे कर डालते हैं . हम तो अब चीफ गेस्ट बन चुके हैं। सच कहूं विश्वास ही नहीं होता है कि जिन्दगी के इतने वर्ष हम साथ गुजर चुके  हैं। अभी कल की ही बात  लगती है।

बुधवार, 2 जनवरी 2013

अम्मा को गए हुए दो साल ....!

                   



                        2 जनवरी 2011 का   सर्द दिन जब अम्मा  हमें छोड़ कर चली  थी . अम्मा सिर्फ हमारी अम्मा नहीं थी बल्कि आस पास हमलोगों के मिलने वाले सभी लोग उनके "भैया" थे ( अपने बेटों को यही कहा करती थी ) . सबके लिए अपार  स्नेह उनके दिल में था . अधिकतर लोग यहाँ पर डिफेन्स की फैक्ट्री में काम करने वाले सुबह जल्दी जाना  शाम को आना . हाँ इतवार को वे जाकर जरूर मिलने जाती . आज भैया घर पर होंगे।                     
             कितना शौक था उनको बनाने और खिलाने  का,  80 साल की उम्र में भी जब कि  वे अपने एक्सीडेंट के कारण  जमीन में तो बैठ ही नहीं सकती थी . अपने बिस्तर के सामने एक मेज रखवा ली थी , किसी पर निर्भरता नहीं चाहिए थी . चाहे उन्हें मेवे का हलुवा  बनाना हो या फिर अचार . उन्हें मिक्सी की पीसी न चटनी पसंद थी न ही कोई और चीज . सारे  मेवे खुद भिगो कर सिल बट्टे पर पीसती , गैस उसी मेज पर रखनी होती अपने हाथ से खूब भून भून कर मेवे तैयार करके हलुवा तैयार करती और वह ख़राब होने  वाला नहीं होता था . अपने पास डिब्बे में भर कर रखती और सुबह  जेठ जी के फैक्ट्री निकलने से पहले कटोरी मंगवाती उसमें हलुवा निकल कर देती - 'ये बड़े भैया को दे देना, चाय के साथ खा लेंगे " और जब पतिदेव के नाश्ते का समय होता तो दूसरी कटोरी लेती और इनके लिए देती - 'ये छोटे भैया के लिए ."  ऐसा नहीं कि  वे हम लोगों के नहीं देती लेकिन मानी  हुई बात है कि  अपने  बेटों को सुबह शाम चाय के साथ जरूर देती .                                  
      'इतनी मेहनत करते हैं ,तुम  लोगों से तो कुछ होगा नहीं मैं बना देती हूँ तो खिला लो। फिर मेरे बाद कौन खिलायेगा ? " शायद वह सच ही कहती थीं क्योंकि अब न तो उनके बेटे शुगर के कारण  इतना मीठा नहीं खा सकते और न ही अब हममें में इतनी दम है कि  उनकी तरह से घंटों भिगो कर और पीस कर छुहारा, बादाम , काजू , किशमिश  , गोंद और मूंगफली को घंटों बैठ कर भूने फिर उसको चाशनी में पकाएं  . सिर्फ अपने बेटों को ही नहीं बल्कि घर में जो आ गया उसको भी वह हलुवा जरूर  खा कर जाता और आज जब वह नहीं है तब भी सभी लोग जब भी आते हैं माताजी की याद जरूर करते हैं और उनके प्रेम और खिलाने पिलाने के शौक को भी जरूर याद  करते हैं।                                                                                                                             
                       अम्मा नहीं है लेकिन उनकी बातें और उनकी अहमियत हम सबके लिए उतनी है आज सुबह इतनी व्यस्तता के बाद भी प्रियंका का फ़ोन आता है --" मम्मी आज दादी की पुण्यतिथि है आप कुछ करेंगी न  ? जाकर मंदिर में गरीबो को समोसे  बाँट आना क्योंकि दादी को समोसे बहुत पसंद थे और वे खुद भी कोई भी आता था तो यही मांगने के लिए पैसे देती थीं। "                                                                                                                  
                          अम्मा का प्यार और दूसरों की सेवा का भाव हमारी सबसे बड़ी अमानत है और हो सका तो हम इसको कायम रखेंगे यही उनका हमारे लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद होगा।  हमारा आज के दिन  उनको शत शत नमन !