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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कोई लौटा दे मुझे बीते हुए दिन ...........

                              नववर्ष की पूर्व संध्या पर आज जब हम लोग अकेले अकेले बैठे टीवी देख  हैं और फिर नींद आने पर सो जायेंगे। कोई जरूरी नहीं कि हम 12:00 तक जागने की कोशिश करें हीं . बच्चों को भी ये बात पता है कि हम लोग बहुत देर तक जाग कर इंतजार नहीं करेंगे इसलिए वे भी सुबह ही विश करते हैं। ये रूटीन वर्षों से चल रहा है जब से बच्चों ने पढाई के लिए घर छोड़ा, खासतौर पर जब सबसे छोटी बेटी मुंबई गयी। कभी कभी भरे मन से ये पंक्तियाँ निकल ही जाती हैं कि "कोई लौटा दे मुझे बीते हुए दिन ........" 
             आज से 12 साल पीछे चलते हैं तो लगता है कि हम कभी वह दिन भी नए वर्ष पर जी रहे थे . इन्हीं को तो यादें कहते हैं और यादें सिर्फ मन और मष्तिष्क में ही संचित होने के लिए होती हैं। यही हमारी धरोहर हैं और बच्चों को भी याद आते हैं वे दिन।  
                उस समय हमारे घर में एक टीवी था और सब वही बैठ कर नए वर्ष पर आने वाले प्रोग्राम को देखा करते थे। हम लोगों ने बच्चों की पढाई के कारण डिश नहीं लगवाई थी . सिर्फ नेशनल टीवी पर आने वाले प्रोग्राम देखा करते थे। हमारे संयुक्त परिवार में 5 बेटियां हैं ( 3 हमारे जेठ जी की और दो हमारी ) . नए वर्ष की पूर्व संध्या पर सब लोग टीवी रूम में फोल्डिंग पर गद्दे बिछा कर रजाई रख कर बैठ जाते , सर्दी के कारण  सोफे या कुर्सी पर बैठने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। उस समय खाने के लिए करारी करारी मूंगफली बीच में रखी होती और गजक होती , प्रोग्राम के देखते देखते खाने का प्रोग्राम चलता रहता और प्रोग्राम पर कमेन्ट .  शांति का तो सवाल ही नहीं उठता था। 12:00 बजते ही सबको गाजर का हलुआ जो पहले से न्यू इयर विश करने पर देने के लिए रखा जाता था। नए साल का मीठा खाकर स्वागत करने केलिए और बस उसके बाद सब अपने अपने बिस्तर में पहुँच जाते .

हमारी पाँचों बेटियां बड़ी की शादी के अवसर पर 

                   तब न मोबाइल और न  ही नेट का इतना अधिक प्रचलन था की रात में ही लोग विश करना शुरू कर देते , इसलिए उसके बाद सोने का ही प्रोग्राम होता था। आज जब रात में अकेले टीवी देखते हैं या फिर सुबह बच्चे विश करते हैं तो सिर्फ हम ही नहीं बल्कि बच्चे भी उन दिनों को याद करके दुखी हो लेते हैं क्योंकि अब पांच बेटियों में सबसे बड़ी बैंगलोर, फिर दूसरी नॉएडा , तीसरी पुर्तगाल , चौथी दिल्ली और पांचवी मुंबई में होती हैं। फिर पाँचों इस दिन कभी इकट्ठी हो पाएंगी ये सिर्फ हम सोच सकते हैं।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

कर्म प्रधान विश्व ........!

                 कर्म प्रधान विश्व रचि राखा  , जो जस करिय सो तस फल चाखा .

          ये तुलसी दास की पंक्तियाँ कालातीत  चुकी हैं लेकिन मैं आज भी इनमें विश्वास करती हूँ . वैसे तो कलयुग में रामायण और गीता के मूल्यों को चुनौती देने वाले वाकये जीवन में बहुत देखे हैं लेकिन अपने विश्वास को कभी डिगने नहीं दिया है। बस कर्म किया है , उसके बाद क्या होगा ? ये सोचने की जरूरत नहीं समझी और यही कारण  है कि  मैं अपने जीवन में सिर्फ और सिर्फ आज में जीती रही हूँ। किसके साथ क्या किया? उसको याद करने की जरूरत नहीं समझी लेकिन न जीवन में किसी का बुरा चाहां और न किया। शायद यही कारण रहा हो कि  मैं आज इस पोस्ट को लिखने के लिए आप सबके समक्ष हूँ। 

                        बात पिछले इतवार की है , मैं बहुत दिनों बाद अपनी दोनों बेटियों के साथ घर में थी और मेरे साथ मेरी भतीजी भी थी। मैं किचेन में दाल चढ़ा कर कमरे में बैठ कर बच्चों के साथ बात कर रही थी। अचानक बम फूटने की आवाज सुनाई दी . मेरा खुद का घर और कभी बड़ा और खुला हुआ है . उस दिन मुहर्रम का दिन था तो सोचा कि किसी ने बम फोड़ा होगा। हम इससे बेखबर थे। बगल से आवाज आई की - रेखा क्या हुआ? मैं बाहर निकल कर आई तो मेरे किचेन में कुकर फट गया था। उसका ढक्कन किचेन से बाहर मुडा हुआ पड़ा था। अन्दर गयी तो गैस स्टोव टूटा हुआ था। दाल पूरे किचेन में छिटकी हुई पड़ी थी। बस इतना ही - उस समय किचेन में गैस के सिलेंडर भरे हुए रखे थे। वाटर प्यूरीफायर था लेकिन किसी को कोई भी क्षति नहीं  पहुंची थी। उस समय किचेन की हालत देख कर मेरे हाथ पैर कांपने लगे। बेटियों ने अन्दर बिठा दिया और समझाया कि मम्मी अगर हममें से कोई भी किचेन में होता तो शायद इस हादसे में कुछ भी हो सकता था। 
मुझे समान्य होने में बहुत देर लगी लेकिन फिर सोचा कि अगर जीवन में कुछ अच्छा किया है तो उसके प्रतिफल में इश्वर ने मुझे मेरे परिवार सहित सुरक्षित रखा। अभी सत्य , परोपकार,दया और औरों के दुःख को बाँट लेने का मोल ईश्वर की नजर में भी है। न्याय और अन्याय वह सोच समझ कर  करता है। इसे मेरी धर्मभीरुता भी आप कह सकते हैं लेकिन मेरी धारणा कल भी यही थी और आज भी यही है कि  आप सबका भला सोचिए इश्वर आपका भला जरूर करेगा 

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

कुछ लोग ऐसे भी !

                        हमें लगता है कि  आज  युग में  वही कुछ करता है जहाँ से उसका स्वार्थ सिद्ध होता हो या फिर उसको कोई लालच हो बिना इसके तो लोग  गिलास पानी भी न दें। इस कथन में सत्यता है लेकिन आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें देवता नहीं तो हम मानव और मानवता के पुजारी जरूर कह सकते हैं।
                       मेरे साथ काम करने वाली एक महिला का काम  प्रेरणादायक भी है और लोग उसको बेवकूफ भी कहते हैं क्योंकि निःस्वार्थ काम करने के बाद कभी कभी वह आलोचना का शिकार भी होती है लेकिन जैसे गाय मिटटी में बैठ कर उठती  है तो उठने के बाद झाड़  कर चल देती है वैसे ही वह हैं। 
                      उनकी एक पारिवारिक मित्र  का आकस्मिक निधन हो गया और उनके पतिदेव एक रूखे स्वभाव के, जिद्दी  और अपने मतलब से मतलब रखने वाले व्यक्ति हैं । यहाँ तक कि  अपने बच्चों से भी उनकी वार्ता कम ही होती थी। अपने अफसरी घमंड में डूबे रहने वाले। उनके घर में जब तक तेरहवीं नहीं हुई सब लोग थे और उसके बाद सब को जाना ही था। बच्चों ने कहा कि अब आप यहाँ रहकर क्या करेंगे ? हमारे साथ चलिए लेकिन नहीं अभी मैंने नया मकान  बनवाया है , ये बरबाद हो जायेगा। बच्चे चले गए वह अकेले कुछ दिनों तक तो छोटे भाई के यहाँ से खाना आया उसके बाद उनसे भी कुछ कह दिया कि उसने भी बंद कर दिया। 
                   तीन दिन तक फल आदि खाकर रहे लेकिन कहाँ तक ? एक दिन उनकी बेटी का फ़ोन मेरी मित्र के पास आया कि आंटी पापा ने दो दिन से खाना नहीं खाया है , आप जरा उन्हें जाकर देख लें । वह कामकाजी महिला लेकिन ऑफिस के बाद अपने पतिदेव के साथ उनके यहाँ गयीं तो पता चला कि  भाई के बेटे ने चोरी की थी और उन्होंने कह दिया तो सब बुरा मान गए। मेरी मित्र ने उनके लिए खाना बनाया और उन्हें खिला दिया। सुबह के लिए कुछ नाश्ता बना कर रख दिया। फिर तो उनके लिए ये रूटीन हो गया कि  वे ऑफिस से पहले उनके घर जाती उनके लिए, अपने पतिदेव और अपने लिए चाय बनाती , तब तक सब्जी काट लेती और उसको बनाने के लिए चढा  देती। चाय पीने के बाद तैयार होने पर उन्हें रोटी बना कर खिलाती और कुछ सुबह के लिए बना कर रख देती ताकि वे दिन में कुछ खा सकें, इसके बाद वे  अपने घर आती। घर में भी संयुक्त परिवार  शाम को खाना बनाने की उनकी जिम्मेदारी  होती तो घर वाले कमेंट करते इतनी देर हो जाती है खाना बनाने में , कहीं और चली जाती हो क्या? लेकिन उन्होंने घर में भी ये बात किसी को नहीं बताई सिर्फ पति और पत्नी के बीच में रही।
                  वे अपने पतिदेव के सहयोग से ये काम 3 महीने तक करती रहीं उसके बाद उन्होंने एक खाना बनाने वाली खोजी और उनको खाना बनाकर देने से लेकर सारी  सफाई तक के काम उसको करने के लिए कह दिया।
         जब उनकी खाने वाली न आती तो उन्होंने कह रखा था की मेरे ऑफिस निकलने से पहले बता दें ताकि मैं अपने लंच के साथ आपके लिए भी कुछ बना कर आपके घर भेज सकूं। अगर छुट्टी वाला दिन हो तो उनसे घर आने के लिए  कह देती और वे घर आकर खाना खा जाते। 
                          आज वे अपने ही घर में अकेले ही रहते हैं लेकिन अब खाना उनको बना हुआ मिल जाता है तो मित्र शाम को कभी कभी उनके हाल चाल लेने के लिए चली जाती है।

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

ख़ुशी जीत की !


                        मैंने अपने  जीवन में पता नहीं कितने लोगों की काउंसलिंग की . उसका परिणाम भी मुझे सुखद  ही देखने को मिलता  हैं तो वह  सुखद अनुभूति मेरे लिए किसी मेडल को जीतने जैसी लगती   है। इसके लिए मुझे किसी ऑफिस में बैठ कर काम करने की जरूरत महसूस नहीं हुई  और न ही मैंने  कभी किया  

                            
              कल शाम विशेष मेरे घर आया , विशेष मेरा कोई रिश्तेदार या फिर हमउम्र मित्र नहीं है बल्कि आज से १८ साल पहले मुझे अपनी लैब में ही मिला था. वह अपना प्रोजेक्ट करने के लिए आया था. वह ऐसे तबके से था जहाँ पर शादी जल्दी कर दी जाती थी. उसकी उम्र बहुत अधिक न थी. ६ महीने उसे मेरे साथ काम करना था. धीरे धीरे हमारी लैब के माहौल के अनुसार सब घर की तरह ही अपनी बातें शेयर करने लगते थे. धीरे धीरे उसके साथ ही पढ़ाने वाले एक मित्र से  पता चला कि विशेष की शादी हो चुकी है और उसकी पत्नी उसके साथ नहीं रहती है , वह उसको छोड़ कर मायके चली गयी है और साथ में उसकी चार साल की बेटी भी है.
                  मेरे दिमाग ने उस टूटते हुए घर को बचाने के लिए विशेष के साथ लंच में अपने पास बैठ कर लंच करने को कहा और उस समय में हम लोग ( हम कई लोग थे जो शहर से आते थे और लंच साथ में ही लेते थे. ) विशेष लंच नहीं लाता था , वह कहीं कैंटीन में बैठ कर कुछ खा लेता. लंच बना कर कौन देता? माँ बीमार रहती थी. सुबह जल्दी नहीं उठ पाती थी. एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया.
'विशेष  , तुम शादी क्यों नहीं कर लेते? माँ की परेशानी को समझो.'
'नहीं , मैम मेरी शादी हो चुकी है.'
'फिर तुम्हारी वाइफ कहाँ है?'
'वह अपनी मायके चली गयी है.'
'ले आओ जाकर.'
'वह नहीं आएगी और मैं लाऊंगा भी नहीं.'
'क्यों?'
'वह जो चाहती है वह मैं कर नहीं सकता, '
'वह क्या चाहती है?'
'वह चाहती है कि मैं अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे उसे भी दूं, उसे घुमाने ले जाऊं.'
'तुम अपने तनख्वाह किसको देते हो? '
'अपनी अम्मा को, घर वही चलाती हें.'
'पत्नी को कुछ भी नहीं देते.'
'नहीं, घर में सब कुछ तो मिल रहा है, उसे पैसे की क्या जरूरत?'
'वह गाँव की है, पढ़ी लिखी भी है या नहीं.'
'यहीं कानपुर की है, हाई स्कूल तक पढ़ी है. शादी बचपन में हो गयी थी . हाई स्कूल के बाद गौना हुआ था.'
'वह गलत क्या चाहती है? उसे कभी कभी घुमाने तुम नहीं ले जाओगे तो वह किसके के साथ जायेगी.? कुछ पैसे तो उसको भी चाहिए होंगे, हर वक्त तो वह माँ से अपनी जरूरत के लिए नहीं कहेगी. उसका कुछ तो हक है तुमसे पैसे लेने का. तुम उसके जाने के बाद कभी गए उसको लेने.'
'नहीं, वह अपने से गयी है अपने से आये तो आये नहीं तो कोई जरूरत नहीं है.'
'तुम जब अपने भाई , बहन और बाकी लोगों पर खर्च करते हो तो वह कुछ कहती थी?
'नहीं, कभी उसने कुछ नहीं कहा? वह तो अपने लिए पैसे मांगती थी. '
'बस इतनी सी बात पर तुमने उसे न लाने का फैसला  कर लिया, अपने आप से सोचो कि वह तुमसे नहीं मांगेगी तो किससे मांगेगी और तुम्हारी कमाई पर थोड़ा सा हक उसका भी है. '
                                 मैं ये सारी बातें उसको धीरे धीरे बैठ कर समझाती रही और फिर एक दिन वह अपनी पत्नी को ले आया. और हमारे यहाँ से उसका प्रोजेक्ट ख़त्म हो गया. लेकिन वह कभी कभी फ़ोन से बात कर लेता था. एक दो साल बाद पता चला कि उसके घर में एक बेटे ने भी जन्म लिया है और वह अपनी पत्नी के साथ खुश है.
                                  फिर एक लम्बे अरसे तक कोई खबर नहीं मिली. जैसे जीवन में ढेरों बच्चे आये और चले गए. कोई  कहीं से और कोई कहीं से.
                               कल शाम विशेष घर आया. उसकी बेटी की शादी तय हो चुकी थी और यहाँ से गुजर रहा था तो आ गया और बताने लगा कि उसकी बेटी की शादी है. मुझे आना जरूर पड़ेगा. बेटा भी अब हाई स्कूल में पढ़ने लगा है और वह एक पब्लिकेशन में काम कर रहा है. उसके जाने के बाद से मैंने कितनी बार उन दिनों में उसके साथ गुजरे उसके नैराश्य के क्षणों को बार बार रिप्ले करके देखा और पाया कि अगर इंसान को सही दिशा मिल जाए और वह खुद भी चाहे तो कितने जीवन बर्बाद होने से बच जाते हैं और एक खुशहाल परिवार बना रहता है. 

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

अपनी पसंद !

                        हम लड़कों और लडाकियों  के भेद  को ख़त्म करने के लिए सतत प्रयास कर रहे है लेकिन आज भी और आज की पीढी में ऐसे लोग हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ लडके चाहिए। इसके पीछे उनकी क्या मानसिकता है ? इसको इस घटना से समझा जा सकता है। 
                       बात अभी कल की ही है मेरे एक रिश्तेदार मेरे घर आई और कुछ समय बाद उन्होंने बात शुरू की कि 'आपके तो सम्बन्ध कई संस्थाओं से है , आप तो जानती हैं की मेरी शादी के इतने दिन बाद भी एक बच्चा भी मुझे नहीं मिल पाया। (वैसे उनको कई बच्चे हुए लेकिन कुछ कारणों से वे पूर्ण नहीं हो सके थे ). मैं अब एक बच्चा गोद लेने के बारे में सोचने लगी हूँ। वैसे तो मैं अभी भी एक डॉक्टर से इलाज करवा रही हूँ , मेरी उम्र भी अब बढती जा रही है तो मैं दो साल तक इन्तजार कर सकती हूँ। 
                   मैं बताती चलूँ कि उनकी उम्र पैंतीस  के आस पास होने वाली है। 
'फिर मुझसे क्या चाहती हो?'
'यही कि आप किसी संस्था में बच्चा  गोद मिल जाए तो मैं ले लूं , लेकिन मुझे लड़का ही चाहिए। '
'लड़का ही क्यों?' 
'देखिये आप जानती हैं कि मैं पैसे से बहुत अधिक सम्पन्न तो हूँ नहीं इनके पास प्राइवेट नौकरी है। मुझे आगे के खर्च के बारे में सोचना तो पड़ेगा ही। '
'क्या ये जरूरी  है कि  लड़का ही मिल जाए। '
'मैं  लिए दो साल तक इन्तजार कर सकती हूँ।' 
                        मुझे उनकी  से बहुत अधिक गुस्सा  आया - ' अच्छा  अगर तुम्हारा अपना बच्चा बेटी हो  जाए तो क्या उसको तुम भी औरों की तरह से बाहर फ़ेंक दोगी? तुम्हारे पास तो लड़की का खर्च उठाने के लिए पैसे की कमी है.'
'नहीं अपना जब होता है तो सभी पाल लेते हैं लेकिन अगर बाहर से लेना है तो फिर लड़की क्यों ली जाय?'
'अगर तुम्हें गोद लेने में भी अपनी पसंद का बच्चा चाहिए तो ये कोई आर्डर नहीं है कि जो आप चाहे वह आर्डर कर दिया जाय और तैयार करके दे दिया जाय.'
'आप समझिये मेरे ससुराल वाले भी चाहते हें कि लड़का ही लिया जाय, वैसे मेरी ननद की एक सहेली है किसी हॉस्पिटल में काम करती है उसने कहा है कि आपको लड़का भी मिल सकता है लेकिन इन्तजार करना पड़ेगा और बच्चा अपरिपक्व मिलेगा क्योंकि वह बच्चा ऐसे लोगों का होगा तो ६-७ महीने पर गर्भपात करवाने आते हें तो फिर उस बच्चे को नर्सरी में रखना पड़ेगा और दो महीने तक उसका खर्च तुम्हें उठना पड़ेगा . '
   'फिर वही विकल्प तुम्हारे लिए सबसे अच्छा होगा. अगर तुम किसी बच्चे के लिए मन में ममता नहीं रख सकती हो तो फिर कहीं से भी ले लो उसके साथ न्याय करना मुश्किल है और अगर कहीं ऐसा हुआ कि गोद लेने के बाद तुम्हारा अपना बच्चा भी हो गया तब उस बच्चे के प्रति तुम्हारा क्या व्यवहार होगा? इसके बारे में कहा नहीं जा सकता है. '
'नहीं ऐसा नहीं होगा? '
'क्यों? अगर तुम्हारे बेटा हो गया तो फिर दो बच्चों का खर्च कैसे उठा पाओगी? '
'इसी लिए तो दो साल और ट्राई करना चाहती हूँ उसके बाद ही गोद लूंगी. '
'नहीं मैं इस दिशा में कोई सहायता नहीं कर पाऊँगी ?'
'क्यों?'
'क्योंकि आज भी हमारे समाज में पैदा होने के बाद  लड़कियाँ ही फ़ेंक  दी जाती है, कभी भी सड़क पर पड़े हुए लड़के नहीं मिलते हें. फिर नवजात शिशु लड़का तो मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. '
'आप ऐसे क्यों कह रही हें? लड़के भी मिल सकते हें.'
'देखिये फिर आप कहीं और जाकर बात कीजिये, मेरे समझ मैं ऐसी कोई संस्था नहीं है जहाँ पर सिर्फ लड़के ही मिल सकते हों. गोद लेने के लिए भी पसंद और नापसंद नहीं होनी चाहिए . जिनके घर में बच्चे नहीं होते वे कुत्ते और बिल्ली के बच्चे पाल पर वही स्नेह देते हें जो हम अपने बच्चों को देते हें. फिर बेटी भी संतान ही होती है और बेटा भी. सबको एक तरह से पालना होता है और एक जैसे पढाना लिखाना होता है. पहले अपनी सोच को बदल लो फिर किसी भी बच्चे को गोद लोगी तो ज्यादा अच्छा होगा. '
       'मैं तो सोच रही थी कि आप हमारी बात को समझ कर कोई सलाह देंगी.'
'मेरी यही सलाह है कि पहले अपनी सोच बदल लो और फिर किसी बच्चे को गोद लेने के बारे में सोचना. '
    'देखिये मेरे दोनों जेठ के लड़के हें और मेरी दोनों ननदों के भी लड़के हें , इसलिए मैं लड़का ही चाहती हूँ.'
     'एक बार और सोच लो, सूने घर में किलकारियां लड़की और लड़के दोनों से गूंजने लगती हैं , अपनी सोच को बदल सको तो अच्छा है. '
'फिर मैं कहीं और बात करके देखती हूँ.'
'शौक से.'
                     मुझे उस औरत के विचारों और सोच पर तरह आ रहा था कि बच्चा न हो कोई खिलौना हो कि अपने मन से जो चाहा ले लिया. ऐसे लोगों ने ही हमारे समाज में इतनी बड़ी लकीर खींच रखी है लेकिन आज की पीढ़ी से मुझे ये उम्मीद नहीं थी.

बुधवार, 12 सितंबर 2012

अतीत का दंश !

                       काम करने वाली की पोती आई -' दादी के हाथ में कील घुस गयी है , वो आज नहीं आ पायेगी। '
सुनकर गृहस्वामिनी के पैरों तले खिसक  जमीन  गयी , कैसे करेगी? यह सब अपने ही काम नहीं निबट पाते  हैं . अचानक मालकिन वाली बुद्धि जागृत हुई - 'सुन तू मेरे सारे  बर्तन साफ कर दे। तेरी दादी अब तुझे बना कर तो कुछ खिला नहीं पायेगी . मैं तुझे  देती हूँ (वह सुबह काम वाली को नाश्ता देती थीं). 
                      वह आठ साल की बच्ची थी , जिसकी माँ  नहीं थी और वह दादी के साथ रहती थी। बिना माँ और   की बच्ची को वह स्कूल में पढ़ा रही थी। 
                  घर के मालिक अख़बार पढ़ते हुए ये सुन रहे थे. पत्नी से कुछ नहीं बोले , लेकिन अपने अतीत में झूलने लगे. माँ दूर स्कूल पढ़ाने जाती थी और वह छोटा था.  स्कूल से लौट कर पड़ोसन चाची के यहाँ चाबी लेकर घर जाता था लेकिन घर में माँ खाने के लिए कुछ बना नहीं पाती थी वह दूध रख कर जाती थी. वह डबलरोटी और दूध खा लेता लेकिन कब तक? जब स्कूल से आता तो पड़ोसन चाची चाबी देने के पहले उसे लालच देती कि  'तुम मेरी गायों  का गोबर साफ कर दो मैं तुम्हें सब्जी रोटी खिला दूँगी.' 
                  बस्ता वही रख कर सब्जी रोटी के लालच में गोबर साफ करता लेकिन कभी माँ को नहीं बताया. तब वही बरामदे में बैठ कर रोटी सब्जी खा लेता.
"नहीं , तुम उसको नाश्ता दे दो, वह बर्तन साफ नहीं करेगी." उनकी आवाज सुनकर पत्नी चौकी.
"अरे आपको इससे क्या लेना देना कि मैं अपना काम कैसे करवाऊं. आपको तो धोने नहीं हें." बिफर ही तो पड़ी थी वह.
"मैं धोता हूँ बर्तन , इस बच्ची को जाने दो. मैं अपने इतिहास को नहीं देखना चाहता हूँ. " कहने को तो वह कह गए लेकिन फिर एक लम्बी चुप्पी साध कर बैठ गए.
अतीत के दंश से मुक्त होना आसान नहीं होता.



सोमवार, 3 सितंबर 2012

एक प्रयास नारी के द्वारा !

Turn off for: Hindi
15 अगस्त 2011 से 14 अगस्त 2012 के बीच में पुब्लिश की गयी ब्लॉग प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं .
विषय
नारी सशक्तिकरण
घरेलू हिंसा
यौन शोषण

अगर आप ने { महिला और पुरुष ब्लॉग लेखक } इन विषयों पर ऊपर दिये हुए समय काल के अन्दर कोई भी पोस्ट दी हैं तो आप उस पोस्ट का लिंक यहाँ दे सकते .
अगर नारी ब्लॉग के पास 100 ऐसी पोस्ट के लिंक आजाते हैं तो हमारे 4 ब्लॉगर  मित्र जज बनकर उन प्रविष्टियों को पढ़ेगे . प्रत्येक जज 25 प्रविष्टियों मे से 3 प्रविष्टियों को चुनेगा . फिर 12 प्रविष्टियाँ एक नये ब्लॉग पर पोस्ट कर दी जायेगी और ब्लॉगर उसको पढ़ कर अपने प्रश्न उस लेखक से पूछ सकता हैं .
उसके बाद इन 12 प्रविष्टियों के लेखको को आमंत्रित किया जायेगा की वो ब्लॉग मीट  में आकर अपनी प्रविष्टियों को मंच पर पढ़े , अपना नज़रिया दे और उसके बाद दर्शको के साथ बैठ कर इस पर बहस हो .
दर्शको में ब्लॉगर होंगे . कोई साहित्यकार या नेता या मीडिया इत्यादि नहीं होगा . मीडिया से जुड़े ब्लॉगर और प्रकाशक होंगे . संभव हुआ तो ये दिल्ली विश्विद्यालय के किसी  college के ऑडिटोरियम में रखा जाएगा ताकि नयी पीढ़ी की छात्र / छात्रा ना केवल इन विषयों पर अपनी बात रख सके अपितु ब्लोगिंग के माध्यम और उसके व्यापक रूप को समझ सके . इसके लिये ब्लोगिंग और ब्लॉग से सम्बंधित एक लेक्चर भी रखा जायेगा .
12 प्रविष्टियों मे से बेस्ट 3 का चुनाव उसी सभागार में होगा दर्शको के साथ .

आयोजक  नारी ब्लॉग
निर्णायक मंडल रेखा श्रीवास्तव  , घुघूती बसूती  , नीरज रोहिला , मनोज जी , निशांत मिश्र और मुक्ति  { 6 संभावित  नाम हैं ताकि किसी कार्य वश कोई समय ना दे सके तो }

प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथी  15 सितम्बर हैं .
सभी 12 प्रविष्टियों को पुस्तके और प्रथम 3 प्रविष्टियों को कुछ ज्यादा पुस्तके देने की योजना हैं लेकिन इस पर विमर्श जारी हैं

ब्लॉग मीट दिसंबर 2012 में रखने का सोचा जा रहा हैं लेकिन ये निर्भर होगा की किस कॉलेज मे जगह मिलती हैं .

आप से आग्रह हैं अपनी ब्लॉग पोस्ट का लिंक कमेन्ट मे छोड़ दे और अगर संभव हो तो इस पोस्ट को और और लोगो तक भेज दे
मेरी यानी रचना की , और जो भी निर्णायक मंडल होगा  उनकी कोई भी प्रविष्टि इस आयोजन में शामिल नहीं होगी हां वो लेखक से प्रश्न पूछने के अधिकारी होंगे अपना निर्णय देने से पहले .

मेरी कोशिश हैं की हम इस बार नारी आधारित मुद्दे पर चयन करे और फिर हर चार महीने मे के बार विविध सामाजिक मुद्दों पर चयन करे . हिंदी ब्लॉग को कुछ और लोगो तक , ख़ास कर नयी पीढ़ी तक लेजाने का ये एक माध्यम बन सकता हैं .

आप अपने विचार निसंकोच कह सकते हैं . निर्णायक मंडल से आग्रह हैं की वो इस आयोजन के लिये समय निकाले .

सोमवार, 13 अगस्त 2012

एक पहलू ये भी !

                मुझे पता चला की नीति की शादी पक्की हो गयी है और कोई भी रस्म नवरात्रि में की जाएगी  और मैं उसके घर गयी क्योंकि ये मेरे लिए अपनी बेटी की शादी तय होने से कम ख़ुशी देने वाला न था। ये यथार्थ ऐसा है जिसको शायद कोई विश्वास न कर सके लेकिन मानव मन की प्रवृत्तियां कब और कैसे अपना स्वरूप बदल कर  सामने आने लगे कह नहीं सकते हैं। ये यथार्थ है और मेरे सामने गुजरा हुआ एक यथार्थ है :

                       नीति ने बचपन से ही रोहन को अपने बड़े भाई के मित्र के रूप में घर में पाया था और उसको भी अपने भाई की तरह ही मानती रही। रोहन भी नीति के लिए उसके अपने भाइयों से अलग कभी नहीं मानती थी चाहे राखी हो या फिर उसको कहीं जाना हो रोहन के साथ चली जाती क्योंकि नीति के पिता नहीं थे और उसके परिवार में 3 भाई, एक वह और  विधवा माँ  थी। कोई आर्थिक मदद करने वाला नहीं था क्योंकि उसके पिता ने अंतरजातीय विवाह किया था सो उसके पिता को परिवार वालों ने पहले ही घर से निकाल  दिया था। एक स्कूल से लगे हुए सर्वेंट क्वार्टर में उसकी माँ अपने परिवार को साथ लेकर रहती थी। वह स्कूल एक अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति था और एक बार दंगा होने पर नीति के माँ ने  परिवार को अपने घर में शरण दे  कर  बचाया था और उसी अहसान को मानते हुए उन लोगों ने तय किया था कि  वे उनके जीवन में कभी उस मकान को खाली नहीं करवाएंगे। उसके तीनों भाई में से कोई भी पढ़ लिख न सका था। माँ की पेंशन और भाई कहीं कुछ कर लेते तो घर में ले आते। कोई भी स्थायित्व की स्थिति में न था और न ही कोई जिम्मेदार था। 
                      जब बचपन में नीति बीमार पड़ी तो रोहन उसको गोद में उठा कर मंदिर मंदिर जाता कि  मेरी बहन ठीक हो जाए और वह ठीक भी हुई। उसकी पढाई में कहीं भी कमी पड़ती तो वह सहायता कर देता क्योंकि वह एक बड़े पैसे वाले पिता का बेटा था। उसके पिता भी नीति को अपनी बेटी की तरह ही मानते थे। 
                      वक़्त के साथ रोहन के पिता अचानक चल बसे और उनकी नौकरी रोहन को मिल गयी। वह नौकरी करने लगा तो उसको नीति की पढाई में सहायता करने में कोई संकोच न रहता .उसने इंटर के बाद आगे डाक्टरी के पढाई के लिए कोचिंग करनी शुरू की और फिर उसका चयन हुआ किसी दूसरे कोर्स  के लिए , उसे बाहर जाकर पढ़ना था और उसके लिए उसे लोन की जरूरत पढ़ी। उसके घर में ऐसा कोई भी न था जिसके आधार पर बैंक उसको लोन दे देती। आखिर रोहन ने अपनी नौकरी के आधार पर उसको लोन दिलवा दिया। इसी बीच रोहन की शादी हो गयी और एक बेटी भी। नीति ने अपनी पढाई पूरी करने के लिए जी तोड़ मेहनत  की ताकि उसको निकलते ही नौकरी मिल जाए  
                     उसकी पढाई पूरी हुई और उसको नौकरी भी मिल गयी लेकिन लोन बहुत था उसको देने में वर्षों लगने थे।लेकिन नौकरी के एक दो साल बाद ही लोगों ने उसकी शादी के सवाल करने शुरू कर दिए। जब भी शादी की बात चलती रोहन ये सवाल उसके सामने रख देता की पहले लोन पूरा करो उसके बाद शादी करना क्या पता तुम्हारे ससुराल वाले इसको देने दें या नहीं . ये लोन मेरी नौकरी के कारण मिला है इसलिए अगर तुम नहीं दोगी  तो मेरे वेतन से कटता रहेगा . नीति ने उसको वचन दिया की वह शादी लोन क पूरा करने के बाद ही करेगी , इधर रोहन का व्यवहार नीति के प्रति बदल गया था। एक दिन उसने उसके पास जाकर कहा कि  तुम मुझसे शादी कर लो। मैं पूरा लोन भर दूंगा . नीति तो जैसे आसमान  से नीचे गिरी उसको विश्वास ही नहीं हो रहा था कि  ये रोहन भैया बोल रहे हैं।
                    फिर फोन से और बार बार मिलकर यही बात दुहराता रहा। एक दिन नीति ने कहा की हाँ करूंगी लेकिन पहले अपनी पत्नी को तलाक दो। उसने कहा की वह ये नहीं कर सकता है वह यही पर नौकरी करती रहे और वह शादी करके उसके पास आता रहेगा। वह समझदार लड़की थी , उसने अपनी शर्तें सामने रखी कि  वह इस बात को अपनी पत्नी और मेरे घर वालों के सामने इसी तरह से कह दें तो वह उसके अहसान के बदले अपना जीवन दांव पर लगाने के लिए तैयार है। उसे बचपन से लेकर  अब किये गए अहसान का  बदला चुकाने  के लिए ये भी  मंजूर  है। रोहन ऐसा कर नहीं सकता था . आखिर नीति ने तय किया कि  वह शादी तभी करेगी जब रोहन के लोन को भर लेगी और उसने अपने जीवन की धारा  बदल दी।  उसने रोहन से दूरियां बना लीं  उसके सामने रोहन का ये एक और चेहरा दिखा था वह उसे तोड़ने के लिए काफी था। 
                             उसने अपनी शादी के तय होने से पहले अपने ससुराल वालों को बता दिया की उसके ऊपर लोन है जिसे पूरा  करने के बाद ही वह अपनी नौकरी छोड़ कर ससुराल में आकर रह पाएगी अगर उसको मंजूर हो तो वह लोग हाँ करें और शायद जीवन के शुरू से ही कष्ट और अभाव देखने वाली नीति के जीवन का नया अध्याय सुखमय ढंग से शुरू होना  था और उन लोगों ने उसकी बात मान ली।
                             

शनिवार, 4 अगस्त 2012

अब इसके आगे क्या ?

         

घर से बाहर साथियों  के साथ 





   मेरे के पारिवारिक मित्र जो डॉक्टर हें बिठूर  के एक वृद्धाश्रम में वृद्धों के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए अक्सर जाते हैं, एक दिन मैंने उनके साथ चलने का विचार बनाया . मुझे वैसे भी ऐसी जगहों पर जाने में अच्छा लगता है. उस दिन मेरे ही सामने जो तमाशा हुआ उसको देख कर लगने लगा कि अब बुजुर्गों को घर से निकाल कर भी उनके बेटे और बहू को चैन नहीं मिल रहा है वे कुछ और भी चाहते हैं लेकिन वे चाहते क्या है? इसको इस घटना से देख कर समझा जा सकता है.
                             वह बुजुर्ग श्रीमान शर्मा एक उच्च पदाधिकारी थे और अपने रिटायर्ड होने के बाद आज उनको चालीस हजार पेंशन मिल रही है . उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद उनको विविध तरीके से परेशान करना शुरू कर दिया गया. वह इंसान जो जीवन भर ऑफिस में और घर में ए सी में रहा उसको अपने ही तीन मंजिले मकान में ऊपर टिन शेड में रहने के लिए आदेश दिया गया.  जीवन भर ऐशो आराम से न सही लेकिन आराम से जीवन जिया था. खुद्दारी भी थी , फिर जब सब कुछ अपने बल बूते पर किया था तो फिर डरना किससे ? उन्होंने अपने मकान के सारे दस्तावेज लिए , बैंक के सारे दस्तावेज और अपने कपड़े लेकर घर छोड़ दिया. वह इस आश्रम में आकर रहने लगे. इस बारे में उन्होंने अपने घर में बेटे और बहू को कुछ भी नहीं बताया था. एक दो दिन तो उन लोगों ने सोचा कि चलो बाला ताली कुछ दिन चैन से रहेंगे और उन लोगों ने उनके बारे में कुछ भी पता लगाने की जरूरत नहीं समझी.
                           फिर आया बिजली का बिल जो कई हजार था , अब बहू बेटे के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं क्योंकि ये सारे खर्च तो पापाजी ही उठते थे. अब वे क्या करें? अब जरूरत समझी कि अपने पिता का पता लगायें . उनके यार दोस्तों से पता किया और फिर पता तो लगाना ही था. उस दिन वे दोनों बिठूर  वृद्धाश्रम में पहुंचे थे. पहले तो उन लोगों ने अकेले में बात करने की बात कही जो पिता ने मान ली और फिर पता नहीं क्या हुआ? बेटे ने पिता को मारना शुरू कर दिया . मार पीट की आवाज सुनकर सभी लोग उस तरफ भागे उनको उठाया. पूरी बात क्या हुई? इस बारे में जानने और पूछने की किसी को कोई जरूरत थी ही नहीं. वहाँ के बुजुर्गों ने ये भी देखा कि शर्मा जी की बहू ने अपने ससुर के हाथ में दाँत से काट लिया तो शर्मा जी ने भी उत्तर में उसका हाथ अपने दाँत के बीच में ले लिया. उसके बाद उसने उनको धक्का दे दिया और वे दूर जा गिरे.  वहाँ उपस्थित बुजुर्गों ने यह हालात देख कर उनके बेटे की सबने मिल कर पिटाई कर दी और फिर बेटे और बहू को वहाँ से भागते ही बना.  शर्मा जी के हाथ में उनकी बहू ने काट लिया था जिससे खून बह रहा था. उनकी ड्रेसिंग  की गयी . फिर उनको आराम से बिठा कर पूछा  गया कि ये लोग क्यों आये थे? फिर क्या हुआ जो इस तरह मार पीट पर उतार आये.
                             शर्मा जी का सिर शर्मिदगी से झुका हुआ था, वह सिर जो अपने ऑफिस में कभी झुका नहीं था और आज अपने ही खून के कारनामों से झुका हुआ था. उन्होंने ने बताया कि - घर के सारे खर्च मैं  उठाया करता था , फिर मैं इतनी पेंशन का करता भी क्या? बच्चों के लिए है लेकिन शायद उनका ख्याल था कि मकान का किराया मैं उन्हें दे दूं और घर भी उनके लिए खाली करके ऊपर छत पर शेड में चला जाऊं क्योंकि यहाँ पर उसके साले के बेटा और बेटी कोचिंग के लिए आने वाले थे तो उनके लिए मेरा कमरा ही सबसे ज्यादा ठीक रहेगा और मेरा क्या ? मैंने तो कहीं भी रह सकता हूँ, लेकिन ये मैं कैसे सहन कर सकता था? मैंने कोई विरोध नहीं किया और मैं घर छोड़ कर यहाँ आ गया. आज वे ए टी एम का पासवर्ड माँगने केलिए आये थे क्यों कि मेरा ए टी एम अलमारी में ही छूट गया था. मेरे वहाँ रहने या न रहने से उन्हें कोई मतलब नहीं है. बेटे से जब मैंने देने से इनकार कर दिया तो पहले उसने अपने बच्चों और खर्चे का हवाला दिया लेकिन मैं अब बिल्कुल भी तनाव लेने के लिए तैयार नहीं था. पत्नी के जाने के बाद वर्षों मैंने इन लोगों को हर तरीके से सहन किया लेकिन अब बिल्कुल नहीं. मैंने जब इनकार कर दिया तो बेटा गाली गलौज  पर उतार आया लेकिन मैं सोच चुका था कि नहीं देना है तो नहीं देना है. मैं ए टी एम बैंक जाकर ब्लाक करवा दूँगा और दूसरा ले लूँगा. मेरे बार बार इनकार पर उसने हाथ उठा दिया और जैसे ही मैंने उस पर हाथ उठाया तो मेरी बहू  ने मेरे हाथ में दाँत से काट लिया और जब मैंने उसके हाथ में काटा तो उसने मुझे धक्का दे दिया. बाकी आप लोगों के सामने है. 











                             हम कहते हैं कि हमारे बुजुर्ग भी कहीं न कहीं गलत होते हैं, हाँ कुछ बुजुर्ग होते हैं लेकिन उस समय घर बुजुर्ग नहीं बहू बेटे छोड़ने की सोचते हैं ताकि वे अलग जाकर चैन से रह सकें. यहाँ तो घर बुजुर्ग ने छोड़ा है  और फिर भी बेटे और बहू को चैन नहीं है. ये सोचने पर मजबूर करता है कि हम बुजुर्गों को इज्जत और आराम से रखना तो नहीं चाहते हैं लेकिन उनके धन के प्रति हमारे मन में पूरा लालच है ऐसी ही एक घटना तो मैंने अपने बहुत ही करीबी बुजुर्ग के जीवन में भी देखा था लेकिन वहाँ बस इतना था कि बेटे समर्थ थे और पिता को रखना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि पिता के पास जो भी है वह कहीं और नहीं जाएगा मिलना तो उन्हीं को है. जब तक वह जिन्दा है अपने तरीके से जिए , हम अपने व्यक्तिगत जीवन में उनको क्यों दखल देने दें.  पिता को कौन चाहता है? ये हद है हमारी निम्न मानसिकता की. और इससे आगे कुछ कह नहीं पाई लेकिन ये मेरा किसी वृद्धाश्रम का दूसरा अनुभव था.