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शनिवार, 22 मई 2010

मेरे सिद्धांत और मेरा करियर !

 मेरे सिद्धांत और मेरा करियर !

                        इस विषय पर लिखने के लिए आज डॉ. कुमारेन्द्र की एक पोस्ट से अपनी भी आपबीती लिखने का मन हो आया जिसे सिर्फ मेरे घर वाले और सहयोगी ही जानते हैं.
 

             आज से ३६ साल पहले मैंने  १९७४ में डबल एम.ए. (राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र ) किया था और उस समय बुंदेलखंड युनिवेर्सिटी में  मेरिट थी. उस समय इतनी शिक्षा में सीधे पद मिल जाया करते थे. मेरी कई सहपाठियों को मिले भी. लेकिन कसबे की रहने वाली लड़की के लिए घर वालों की नजर में  शादी करनी अधिक जरूरी थी और नौकरी की कोई अहमियत भी नहीं थी. इसलिए और मैं अपने लेखन से व्यस्त थी इसलिए भी तब तो नौकरी की कोई बात ही नहीं उठी. लेकिन शादी के बाद यहाँ कानपुर में आकर 'सिंद्धांतों से नहीं डिगेंगे' ( जो आज भी है) के तर्ज पर नौकरी की कोशिश की तो पता चला कि १० हजार लगेंगे डिग्री कॉलेज  में प्रवक्ता की जगह के लिए. जो मुझे मंजूर  नहीं था. क्योंकि मैं पात्रता में कहीं भी कम नहीं थी और पढ़ाने में अधिक रूचि थी और कौंसलर तो शायद मैं पैदा ही हुई थी. 
                                इसी रूचि के तहत मैंने बी.एड. ,एम. एड .दोनों किया. फिर भी वही हाल अब रकम और बढ़ गयी थी. मैं वही थी, समझौता मुझे मंजूर नहीं था तो नहीं था . फिर बिना किसी सिफारिश के यहाँ  आई आई टी में नौकरी मिली. एक साल बाद मशीन अनुवाद में आ गयी. सबने कहा कि विषय अच्छा है नया है, कानपुर विश्विद्यालय से Ph . D. कर लीजिये. खैर एक परिचित गाइड के निर्देशन में विषय "शिक्षा में मशीन अनुवाद की उपयोगिता" पर  शोध विषय स्वीकृत हो गया . मैं उनकी पहली छात्रा  थी और नए विषय को तुरंत ही स्वीकृति मिल गयी. मैंने काम करना शुरू कर दिया. वे मेरे विषय से बिलकुल अनभिज्ञ थी इसलिए मार्गदर्शन का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. उस समय कंप्यूटर शिक्षा विषय  में हाल ही शामिल भी किया गया था .  मुझे अपने काम के लिए आई आई टी अपने वरिष्ठ प्रोफेसरों से सहयोग मिल ही रहा था. लेकिन कौन इसका श्रेय नहीं लेना चाहेगा.  काम किया जब तैयार हो गयी तो मेरी गाइड ने अपरोक्ष रूप से कहना शुरू किया की उसकी थेसिस का विषय मेरे निर्देशन में स्वीकृत हुआ है उसने मुझे ये सोने की अंगूठी बनवा कर दी है. आज कल तो सिर्फ हस्ताक्षर के ही ५० हजार गाइड मांग रहे हैं. इस तरह से अपरोक्ष रूप ५० हजार रुपये की मांग की  सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए और वह थीसिस मैंने उठ कर रखा दी. मैं चाहती तो किसी भी दूसरी गाइड के साथ उसी विषय को जमा कर सकती थी लेकिन मन में एक वितृष्णा सी हो गयी. 
                     फिर आज तक दुबारा मैंने Ph . D . करने कि जरूरत नहीं समझी क्योंकि अगर अपनी मेहनत के बाद भी पैसे दूं तो ऐसी डिग्री मुझे नहीं चाहिए. वैसे मैं खुद कितने लोगों को Ph . D . के लिए निर्देशित कर चुकी हूँ लेकिन खुद Ph . D . नहीं हूँ. वैसे भी अब सिर्फ नाम के आगे डॉ. लगाने के लिए डिग्री हासिल करने की मुझे जरूरत भी नहीं है. लेकिन मेरा यह ख्याल कि अगर मैं काबिल हूँ और इसके लिए पात्रता भी है तो मैं पैसे क्यों दूं?  मुझे वक़्त के साथ ले जाने में सफल नहीं रहा, लेकिन मेरे सिद्धांत मुझे आज भी प्रिय है और मुझे इस बात का पूरा गर्व है. 

मंगलवार, 18 मई 2010

दर्द जो आखिर बह निकला!

आज सुबह जब ऑफिस आई तो एक मेल थी मेरे एकाउंट में और उसमें थी एक कविता - पढ़ा सोचा और आँखें भर आयीं फिर डूबने लगी अतीत में और उतराने लगी वर्तमान में ---

                       वह एक समय था जब वह फर्स्ट इयर में पढ़ रही थी, बहुत मेधावी छात्रा थी अब भी वैसे ही है क्योंकि मेधा तो कहीं जाती नहीं है. हाई स्कूल में ७७% UP बोर्ड से हासिल किये थे.  सभी विषयों में ऑनर्स थी.  अचानक एक दिन स्कूल में ही बेहोश हो गयी , स्कूल से फ़ोन मिला तो घर ले आये फिर कई दिन तक बुखार और तेज दर्द. पूरे बदन में दर्द की शिकायत होने लगी. दवा देते, उसको मालिश करते और कभी कभी तो उसको कंधे से पकड़ कर ऐसे ही दबाये बैठे रहते. कभी कभी तो सारी रात ऐसे ही बैठी रहती कि  वो सो जाए. कभी आराम हो गया तो सो जाती और मैं भी वही लुढ़क जाती. कब इस दर्द की तेजी बढ़ जाए नहीं कह सकती  . हम सभी चिंता और रोग से टूट रहे थे. कोई डॉक्टर, मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारा नहीं बचा  , लेकिन परिणाम सिफर कोई कारण नहीं जान पाया. इलाज की कोई भी विधा नहीं छोड़ी - एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, बायोकैमिक, एक्यूप्रेशर, मेग्नेट थेरेपी कुछ भी नहीं छोड़ा था. जिन्दगी अपनी गति से भागी जा रही थी हम उसके साथ साथ ही चल रहे थे लेकिन थके थके से . उसका १२ क्लास था और हम वही. जितनी देर ठीक रहती पढ़ाई करती या फिर दर्द से बैचेन रहती. हिम्मत इतनी कहती मम्मी ऑफिस जाओ कोई परेशानी होती तो किसी को बुला लूंगी. परीक्षाओं का समय नजदीक आ रहा था और उसे अपनी प्रतिष्ठा की भी चिंता होने लगी , वह स्कूल में अध्यक्ष भी थी. कभी कहती - 'मम्मी मैं कभी ठीक नहीं हो सकती? मैं अपनी जिन्दगी में कुछ भी नहीं कर पाउंगी. '
                   उसके शब्द मुझे अन्दर तक बेध जाते थे लेकिन आंसूं छुपाकर उसको समझाती नहीं ऐसे थोड़े रहेगा सब ठीक होगा.  परीक्षाओं में रात को उसको कंधे से कस के दबा कर बैठ जाती और वह पढ़ती. बीच में सुला भी देती और किसी तरह से उसको परीक्षा दिलवाई थी तब भी चिंता रहती की वहाँ न कोई परशानी हो.  वह भी उसने ऑनर्स से निकाल ली. हम दर्द की गलियों में यूं  भटक रहे थे.  
               इंटर के बाद उसने निर्णय लिया कि मेडिकल की तैयारी ही करूंगी . उसकी तैयारी के बीच ही उसको संजय गाँधी लखनऊ   दिखाया तो वहाँ पता चला कि इस रोग को "फाइब्रोमाइलीजिया " कहते हैं और इसका  दवा से इलाज नहीं हो सकता और इसमें कोई भी पेनकिलर भी काम नहीं करती. इसको physiotherapy  और तनाव से मुक्त रहने से कम किया जा सकता है . 
                       फिर सारी दवा बंद और उसने आपको तैयार किया ऐसी ही पढ़ाई के लिए, उसका चुनाव Occupational Therapy के  लिए हो गया और वह भी Delhi में जाकर पढ़ने लगी.  अब भी जब बहुत दर्द होता है तो फ़ोन करती है और कहती है कि मम्मी बहुत दर्द हो रहा है लेकिन उसके इंस्टिट्यूट में इसके लिए therapy है और वही उसकी exercise भी होती है. कुछ मशीन से treatment दिया जाता है. अब इसको अपनी जिन्दगी का एक हिस्सा मान लिया उसने और सारी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए फाइनल  इयर तक आ गयी शेष ६ महीने की internship के बाद वह खुद अपने नए सफर पर  चल पड़ेगी. 
                                      आज सुबह उसी की मेल थी और उसे उसी तरह से लिख रही हूँऔर  इसको लिखने वाली है मेरी छोटी बेटी सोनू ( प्रियंका).

 क्या लिखा है? क्यों लिखा है? पता नहीं बस लिखा डाला , पढ़ लो और किसी को पढ़ाया भी नहीं है.

जीवन बन गयी एक उलझन, 
अब तो कहीं लगता नहीं मन.
क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आता,
क्यों कोई मुझे नहीं समझ पाता,
सबको ही है आगे बढ़ने की होड़,
सब निकल रहे है मुझे पीछे छोड़. 
किसे बुलाऊं और कौन आएगा?
आखिर कोई कब तक मेरे साथ निभाएगा.
तय करना है मुझे अकेले ही ये सफर,
फूलों की हो या फिर काँटों की डगर.
साथ रहेगा तुम्हारे प्यार का अहसास,
टूटने नहीं दूँगी कभी तुम्हारा विश्वास. 
लडूंगी मैं जीवन की ये जंग,
अकेले रहूँ या कोई हो मेरे संग. 
न कोई साथी न कोई मीत
बस मुझे चाहिए अपने सपनों की जीत.

सोमवार, 17 मई 2010

महिला ब्लॉगर्स का सन्देश जलजला जी के नाम!






कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो  कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम  इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं.

ब्लॉग जगत में सबने इसलिए कदम रखा था कि न यहाँ किसी की स्वीकृति की जरूरत है और न प्रशंसा की.  सब कुछ बड़े चैन से चल रहा था कि अचानक खतरे की घंटी बजी कि अब इसमें भी दीवारें खड़ी होने वाली हैं. जैसे प्रदेशों को बांटकर दो खण्ड किए जा रहें हैं, हम सबको श्रेष्ट और कमतर की श्रेणी में रखा जाने वाला है. यहाँ तो अनुभूति, संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति से अपना घर सजाये हुए हैं . किसी का बहुत अच्छा लेकिन किसी का कम, फिर भी हमारा घर हैं न. अब तीसरा आकर कहे कि नहीं तुम नहीं वो श्रेष्ठ है तो यहाँ पूछा किसने है और निर्णय कौन मांग रहा है? 
हम सब कल भी एक दूसरे  के लिए सम्मान रखते थे और आज भी रखते हैं ..
                            
 अब ये गन्दी चुनाव की राजनीति ने भावों और विचारों पर भी डाका डालने की सोची है. हमसे पूछा भी नहीं और नामांकन भी हो गया. अरे प्रत्याशी के लिए हम तैयार हैं या नहीं, इस चुनाव में हमें भाग लेना भी या नहीं , इससे हम सहमत भी हैं या नहीं बस फरमान जारी हो गया. ब्लॉग अपने सम्प्रेषण का माध्यम है,इसमें कोई प्रतिस्पर्धा कैसी? अरे कहीं तो ऐसा होना चाहिए जहाँ कोई प्रतियोगिता  न हो, जहाँ स्तरीय और सामान्य, बड़े और छोटों  के बीच दीवार खड़ी न करें.  इस लेखन और ब्लॉग को इस चुनावी राजनीति से दूर ही रहने दें तो बेहतर होगा. हम खुश हैं और हमारे जैसे बहुत से लोग अपने लेखन से खुश हैं, सभी तो महादेवी, महाश्वेता देवी, शिवानी और अमृता प्रीतम तो नहीं हो सकतीं . इसलिए सब अपने अपने जगह सम्मान के योग्य हैं. हमें किसी नेता या नेतृत्व की जरूरत नहीं है.
 
इस विषय पर किसी  तरह की चर्चा ही निरर्थक है.फिर भी हम इन मिस्टर जलजला कुमार से जिनका असली नाम पता नहीं क्या है, निवेदन करते हैं  कि हमारा अमूल्य समय नष्ट करने की कोशिश ना करें.आपकी तरह ना हमारा दिमाग खाली है जो,शैतान का घर बने,ना अथाह समय, जिसे हम इन फ़िज़ूल बातों में नष्ट करें...हमलोग रचनात्मक लेखन में संलग्न रहने  के आदी हैं. अब आपकी इस तरह की टिप्पणी जहाँ भी देखी जाएगी..डिलीट कर दी जाएगी.

मंगलवार, 11 मई 2010

आंखन देखी कानन सुनी !

                           

    ये किस्से सिर्फ लोगों से सुनती आ रही थी कि हमारी पुलिस कितनी भ्रष्ट है? पर कल तो ये कहावत सच हो गयी 'आंखन देखी कानन सुनी' मैं ही उसकी साक्ष्य बन गयी. मुझे शर्म भी आ रही थी और क्रोध भी .


                               कल जब मैं ऑफिस कि बस से उतरी तो मेरे पैर में बहुत दर्द था और मैं चौराहा भी पार नहीं कर सकती थी. मैंने पतिदेव को बोल दिया कि मैं जहाँ बस उतारती है वही पर बैठ जाउंगी. उस चौराहे पार पुलिस वाले खड़े होते हैं ट्रेफिक कण्ट्रोल के लिए. 
वही थोड़ी सी ऊंचाई पर कुर्सी पड़ी रहती हैं उनके बैठने के लिए. मैंने खाली कुर्सी देखी और उनसे पूछा - " क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ. मेरी ऐसी समस्या है और मुझे इन्तजार करना है." 
उन्होंने  मुझे बैठने कि अनुमति दे दी.
                                 उनमें तीन लोग थे, एक बाइक पार बैठा था और दो सड़क के किनारे बात कर रहे थे. देखो नई गाड़ी देख कर रोको. पैसे वाले होते हैं और देखना जिनमें ड्राइवर हो और हट्टा-कट्टा न हो.  मैंने सुन रही थी, एक गाड़ी आई उन लोगों ने रोक ली. 
'चलो गाड़ी के कागज़ निकालो, और उधर saahab को जाकर चैक  कराओ. '
  उन लोगों ने गाड़ी पर बैठे हुए को साहब बना दिया. गाड़ी वाले ने गाड़ी के कागज़ दिखा दिए.
'गाड़ी का लाइसेंस लाओ, बीमा के कागज़ पूरे हैं कि नहीं सब लाओ.' बाइक पर बैठे हुए सिपाही ने पूछा
              उनके इस सवाल पर  गाड़ी में पीछे बैठे मालिक को इन लोगों ने नहीं देखा था. इतना सुनकर मालिक गाड़ी खोल कर उतर कर आ गया.
'क्यों भाई क्या बात है? जो भी देखना है एक बार में क्यों नहीं बताते हो?' उसकी दबंग आवाज सुनकर वे सकपका गए.
'जी, चैक तो करना ही पड़ता है, आप के सारे कागज़ पूरे हैं जाइए."
     खैर एक तो निकल गयी, फिर वे दुबले पतले ड्राइवर के इन्तजार में खड़े हो गए.
फिर एक गाड़ी को हाथ देकर रोक लिया और वही सवाल फिर.
        उस गाड़ी वाले ने भी सब दिखाया कुछ कमी रही होगी तो लड़के ने फ़ोन पार बात करके फ़ोन पुलिस वाले को पकड़ा दिया.
"जी सर, कोई बात नहीं, रूटीन चेकिंग चल रही है. सब ठीक है.'
         उससे अगली गाड़ी भी चली गयी. इस बीच बहुत सी गाड़ियाँ निकल गयीं . वे चुपचाप खड़े रहे फिर उन्हें कोई नई गाड़ी नजर आ गयी और उन्होंने हाथ दिया. उस गाड़ी को ड्राइवर चला रहा था और पीछे कोई महिला बैठी थी. उनको लगा कि ये सही है. मरियल सा ड्राइवर और पीछे महिला जरूर कुछ मिल जाएगा. 
               अगली गाड़ी रुक गयी. पुलिस वालों ने कागज़ मांगे, ड्राइवर ने महिला से कहा और महिला ने सारे कागज़ उनको थमा दिए. 
वे इधर उधर करते रहे और कागज़ रख कर बैठ गए. 
महिला ने पूछा कि क्या बात है? 
'जी इसमें जो मुहर लगी है वो साफ नहीं है, इसलिए हमें कुछ सही नहीं लग रहा है. '
'कौन से मुहर ठीक नहीं है" महिला ने पूछा.
'ये वाली , दिखलाई नहीं देता है ऐसे कागज़ लेकर गाड़ी लेकर चल देती हैं.' उसने प्रभाव ने लेना चाहा.
             महिला ने अपने कागज़ उसके हाथ से छीनते हुए कहा, ' अब जाकर चालन कर दो और मैं आकर कोर्ट में निपट लूंगी.'
       उसने ड्राइवर को चलने का आदेश दिया और गाड़ी चली गयी.
'अरे  ये तो बड़ी तेज निकली, यार आज का दिन ही ख़राब है. चाय के पैसे भी नहीं निकले अभी तक.' वे आपस में बात कर रहे थे.
तब तक मेरे पतिदेव आ गए थे और मैं भी चल दी. लेकिन मैं ये सोच रही थी कि बेचारों  का कितना ख़राब दिन निकाला एक भी तो पैसा नहीं मिल पाया और एक औरत बेइज्जत करके और चली गयी. ये तो डूब मरने वाली बात हुई न.

सोमवार, 10 मई 2010

मेरा मदर'स डे!

                              सबको शुभकामनाएं देते देते मेरी छोटी बेटी का ये तोहफा अपनी माँ के लिए  - बोली अरे लिखने वाली मम्मी के लिए कविता ही तो लिखनी पड़ेगी और भले ही ये पांचवे क्लास वाली हो. पर मुझे तो ऐसे ही लिखना आता है, मम्मी प्लीज हंसना नहीं.


सबसे प्यारी जिनकी सूरत,
ममता की है वो एक मूरत,
हमसे करें ढेर सा प्यार,
हम है उन आँखों का संसार
चाहे दिन हो या आधी रात,
दूर करें हर गम की बात,
भूल कर अपना सारा दर्द
गर्मी हों या रातें सर्द,
किसी काम को करें न मना,
ऐसी प्यारी न्यारी   मेरी माँ.
हैप्पी मदर'स  डे !
--सोनू

शनिवार, 8 मई 2010

माँ तुझे सलाम!

                         शत शत वन्दे है मातु तुम्हें,
                         सब कुछ अर्पण है मातु तुम्हें, 
                         जीवन सच्चे मानव का दिया 
                         ये श्रेय समर्पित  मातु  तुम्हें.
            अगर पश्चिमी संस्कृति से हमने कुछ ग्रहण किया है तो वह सब कुछ बुरा ही नहीं है, कुछ अच्छा भी है. ये "मदर्स डे"  भी तो वही से सीखा है हमने. कम  से कम साल में एक बार सारी दुनियाँ माँ क्या है? और उसने क्या किया है? इसको सब लोग याद करने लगे हैं. वैसे भी नारी का यह रूप सदा ही वन्दनीय है. जन्म से लेकर अपने पैरों पर चलने तक सिर्फ और सिर्फ एक माँ ही होती है जो अपने बच्चे को पालती है. 

                              माँ यदि माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाकर बच्चे को उस मुकाम तक लाये - जहाँ उसकी अपनी जगह बन सके और फिर ऐसे बच्चे को - जो दुनियाँ की नजर में लाइलाज हो तो उस माँ की हिम्मत और संकल्प को शत शत नमन.
                      वह माँ उषा कपूर से मेरी मुलाकात विगत १९ जनवरी को ट्रेन में हुई थी. मैं कानपुर से जबलपुर जाने के लिए ट्रेन में चढ़ी थी और वह लखनऊ से आ रही थी. वह मेरी सामने वाले सीट पर बैठी थी. उनके साथ उनकी १२-१३ वर्ष की मानसिक विकलांग बेटी भी थे. उनकी बेटी स्तुति आँखें बंद किये बैठी थी और बार बार आने बालों में अँगुलियों से कंघी कर रही थी. पहले मैं समझी की ये नेत्रहीन है लेकिन बाद में पता चला कि वह सिर्फ मानसिक विकलांग है. उसको अकेले संभालना आसन काम नहीं था.
                     मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे पूछा की क्या आपकी  बेटी को कोई प्रॉब्लम है? 
"हाँ ये नॉर्मल नहीं है, बिना मेरे कहीं जा नहीं सकती , मैंने इसको आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया है और अकेले ही इस रास्ते पर चल रही हूँ." 
"इसके फादर?"   मैंने बात अधूरी इसलिए छोड़ी थी की पता नहीं क्यों ये अकेली चल रही हों ?
"इसके फादर सी एम ओ है, अमुख जगह पर उनकी पोस्टिंग है. मैं इसको लेकर अकेली लखनऊ  से आ रही हूँ."
                     मेरी उत्सुकता उस बेटी में अधिक थी, क्योंकि मेरी बेटी ऐसे बच्चों के इलाज के लिए पढ़ाई कर रही है और ऐसे केस उसके लिए चुनौती होते हैं. 
"क्या ये जन्म से ही ये ऐसी है ?" मैंने उनसे जानना चाहा.
"हाँ, जब ये होने को थी तो डॉक्टर ने कहा था की बच्चे की पोजीशन सामान्य नहीं है, इसलिए आपरेशन करना पड़ेगा. लेकिन हमारे सास ससुर ने कहा कि नहीं बच्चा घर पर ही हो जाएगा. इसके पैदा होने में दाई ने सिर बड़ा होने के कारण प्रसव किसी तरीके से कराया जिससे उस समय इसके सिर की नसों पर पड़े दबाव के कारण इसमें ये असामान्यता आ गयी." 
" ये बात आपको पता कब चली?"  मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की तो वह भी कोई बांटने वाला मिला या कोई रास्ता सुझाये ये सोच कर मुझसे शेयर करने लगीं. 
"पहले २ महीने तो तक तो पता ही नहीं चला, क्योंकि मुझे कोई अनुभव नहीं था और बड़ों ने कहा की बच्चे बचपन में ऐसे ही रहते हैं. कुछ बच्चे देर में चैतन्य होते हैं. इन्होने कोई रूचि नहीं दिखाई क्योंकि ये अपने माँ-बाप के बेटे थे. मैं भी नयी ही थी , इसके लिए तुरंत कुछ न कर सकी."
       उनके स्वर की विवशता मैं अनुभव कर रही थी और फिर उनके कहे को सुनाने के लिए भी बेताब थी. हमारी सफर तो लम्बी थी लेकिन रात हो रही थी और सोने का समय भी हो रहा था.
"आप ने इसके बारे में जब सोचा तब ये कितनी बड़ी हो चुकी थी? " मैंने सब कुछ जाना चाहती थी.
"जब ये २ साल की हो गयी और अपने काम के लिए भी मेरे ऊपर ही निर्भर थी, फिर मैंने सोचा की अगर इस बच्ची को जन्म दिया है तो इसको पार लगाना मेरा काम है. मैं लखनऊ अपने मायके आ गयी. वहाँ पर मैंने विशेष स्वास्थ्य केंद्र में इसको दिखाया - उन्होंने भी यही बताया की इसकी कोई दवा नहीं होती बल्कि इसके रिहैबिलिटेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है. फिर मैंने इसके रिहैबिलिटेशन के लिए डिप्लोमा कोर्स किया ताकि मैं इसको खुद देख सकूं और इसको सही ढंग से ट्रीट कर सकूं. इन बच्चों के लिए दवा नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करने की जरूरत होती है."
                               उन्होंने उस कड़ाके की सर्दी में सिर्फ एक शाल ले रखी थी और बच्ची के लिए दो बैग और बेडिंग उनके साथ थी. हर जगह इसको अकेले ही लेकर जाती . पति सिर्फ पैसे देने वाले थे. बच्ची के लिए उनकी इतनी ही भूमिका थी. बच्ची के साथ उनका एक चौथाई किराया लगता था. 
                            बीच बीच में वह  बेटी को खाने के लिए भी देती  जा रही थीं.  उसके स्वेटर को ठीक कर रही थी. उससे लेटने के लिए भी कह रही थी. बच्ची अभी भी आँखें बंद किये ही बैठी थी और बात भी करती जा रही थी.
                            उनको मैहर जाना था, वहाँ उनके आध्यात्मिक गुरु का शिविर  लगने वाला था. ध्यान , योग और अन्य क्रियाओं में वे इसको शामिल करने ले जाती हैं. उनके गुरु के अनुसार ये लड़की एक दिन आत्मनिर्भर बन जायेगी. वह  खुद तो इस ज्ञान में इतने आगे बढ़ चुकी थीं की जो भी जिसने किया उन्होंने सबको माफ कर दिया लेकिन अभी बच्ची के लिए बस एक ही लक्ष्य बना कर रखा है कि ये आत्म निर्भर हो जाए .
"मैं जिस स्थति से गुजर कर आई हूँ, चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था, कभी कभी अकेले में फूट फूट कर रो पड़ती थी कि ये मेरे किस कर्म कि सजा मुझे मिली लेकिन नहीं मुझे गुरु मिले तो राह मिली. वही मुझे दिशा देने वाले हैं. अब तो मैं इसको बहुत बहुत कुछ सुधार कर ले आई हूँ. अब ये लड़की अगर सब्जी दीजिए तो आपको काटकर देगी, पराठे भी बहुत बढ़िया बनाती है."
"मम्मी को भी खिलाती हूँ." वह आँखें बंद किये किये ही बोली.
"मैंने ये संकल्प लिया है की मैं अपने मरने के पहले इसे आत्म निर्भर बना दूँगी ताकि ये अपने  आप सब कर सके, और मुझे पूरा विश्वास है - अपने गुरु और खुद अपने पर की जो लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, एक दिन जीत कर दिखाउंगी."
                     फिर हम सब सोने चले गए. सुबह होने को थी तो मैहर आने वाला था. वह ऊपर से उतर कर आयीं और सामन समेटना शुरू किया. बच्ची से कहा - 'चलो आगे स्टेशन पर उतरना है.'
बच्ची चिल्लाने लगी - नहीं मुझे मैहर जाना है, मुझे मैहर जाना है.' 
                  उस समय वे उसको ठीक तरीके से नहीं समझ पा रही थी. आखिर उन्होंने कहा - 'ठीक है, मैं जाती हूँ, तुम आगे उतर जाना.'
                 माँ की ये बात उसको समझ आ गयी और वह सीट से उठा कर खड़ी हो गयी. वे दो बैग , बेडिंग अकेले लेकर चल रही थी. इस तरह से वे मैहर पर हमसे विदा हुईं. 
                       सफर में मिले मुसाफिर हमसे कहीं न कहीं जुड़े होते हैं और आज भी उनके धैर्य, संकल्पशक्ति और लगन को नमन करती हूँ कि ईश्वर उन्हें सफलता प्रदान करे. ऐसी माँ जो इस जंग को अकेले ही लड़ने के निकल पड़ी है कौन उसे सलाम नहीं करेगा? 
माँ तुम्हें सलाम.